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वीसवाँ शतक : उद्देशक-९]
[६९ मानुषोत्तरपर्वत, नन्दीश्वरद्वीप, नन्दनवन एवं पण्डकवन में समवसरण एवं चैत्यवन्दन : विशेष संगत अर्थ और भ्रान्तिनिवारण-प्रस्तुत में समवसरण का अर्थ-धर्मसभा नहीं, किन्तु सम्यक् रूप से अवसरण–अवस्थान यानी ठहरना या स्थित होना है। यहाँ समवसरण का धर्मसभा अर्थ संगत नहीं हो सकता, क्योंकि एक तो समवसरण तीर्थंकरों के लिए देवों द्वारा रचित धर्मसभा-स्थल होता है, वह विद्याचारण या जंघाचारण जैसे मुनियों के लिए नहीं होता। दूसरे समवसरण अर्थात् धर्मसभा की रचना करने का वहाँ कोई औचित्य नहीं, क्योंकि वहाँ कोई श्रोता उनका धर्मोपदेश सुनने नहीं आता। इसलिए 'समवसरणं करेति' यह वाक्यप्रयोग स्पष्ट करता है कि वहाँ चारण मुनि उतरता है—ठहरता है।
___ 'चेतिआई वंदति'—में चैत्य का अर्थ 'मन्दिर' किया जाए तो यह अर्थ यहाँ संगत नहीं होता, क्योंकि न तो मानुषोत्तरपर्वत पर मन्दिर का वर्णन है और न ही स्वस्थान अर्थात्-जहाँ से उन्होंने उत्पात (उड़ान) किया है, वहाँ भी मन्दिर है । अत: चैत्य का अर्थ मन्दिर या मूर्ति करना संगत नहीं है, अपितु 'चिति संज्ञाने' धातु से निष्पन्न 'चैत्य' शब्द का अर्थ—विशिष्ट सम्यक्ज्ञानी है तथा 'वंदइ' का अर्थ—स्तुति करना है, अभिवादन करना है, क्योंकि 'वदि अभिवादन-स्तुत्योः' के अनुसार यहाँ प्रसंगसंगत अर्थ 'स्तुति करना है। क्योंकि मानुषोत्तर पर्वत आदि पर अभिवादन करने योग्य कोई पुरुष नहीं रहता है, अत: वे उन-उन पर्वत, द्वीप एवं वनों में शीघ्रगति से पहुंचते हैं, वहाँ चैत्यवन्दन करते हैं, अर्थात्-विशिष्ट सम्यग्ज्ञानियों की स्तुति करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि मानुषोत्तर पर्वत, नन्दीश्वर द्वीप आदि की रचना का वर्णन जैसा उन विशिष्ट ज्ञानियों या आगमों से जाना था, वैसा ही रचना को साक्षात् देखते हैं तब वे (चारणलब्धिधारक) उन विशिष्ट ज्ञानियों की स्तुति करते हैं।
गतिविषय का तात्पर्य गतिविषय का अर्थ—गतिगोचर होता है, किन्तु उसका तात्पर्य वृत्तिकार ने बताया है कि वे भले ही उन क्षेत्रों में गमन न करें, फिर भी उनका शीघ्रगति का विषयभूत क्षेत्र अमुक-अमुक है।'
विद्याचारण : कब विराधक, कब आराधक ? –लब्धि का प्रयोग करना प्रमाद है । लब्धि का प्रयोग करने के बाद अन्तिम समय में आलोचना न की जाने पर चारित्र की आराधना नहीं होती, किन्तु विराधना होती है। अर्थात् यदि लब्धि का प्रयोग करने के बाद चारणलब्धिसम्पन्न साधक मरणकाल में उक्त प्रमादस्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण नहीं करता, तो वह चारित्र का विराधक होने से चारित्र की आराधना का फल नहीं पाता। इसके विपरीत यदि लब्धिप्रयोग करने के बादं चारणलब्धिसम्पन्न मुनि उस प्रमादस्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण कर लेता है तो वह चारित्राराधक होता है और आराधनाफल भी पाता है।
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२. ३.
(क) भगवती. विवेचन, भाग, ६ (पं. घेवरचन्दजी), पृ. २९१७ (ख) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. २ (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ.८८० भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७९५ (क) वही, पत्र ७९५ (ख) भगवती. विवेचन भा.६, (पं. घे.), पृ. २९१६