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सत्तमो उद्देसओ : 'बंधे'
सप्तम उद्देशक : ‘बन्ध' बन्ध के तीन भेद और चौवीस दण्डकों में उनकी प्ररूपणा
१. कतिविधे णं भंते ! बंधे पन्नत्ते ? गोयमा ! तिविधे बंधे पन्नत्ते, तं जहा—जीवप्पयोगबंधे अणंतरबंधे परंपरबंधे। [१ प्र.] भगवन् ! बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ?
[१ उ.] गौतम ! बन्ध तीन प्रकार का कहा गया है, यथा—जीवप्रयोगबन्ध, अनन्तरबन्ध और परम्परबन्ध।
२. नेरतियाणं भंते ! कतिविधे बंधे पन्नत्ते ? एवं चेव । [२ प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीवों के बन्ध कितने प्रकार के हैं ? [२ उ.] गौतम ! पूर्ववत् (तीनों प्रकार के) हैं। ३. एवं जाव वेमाणियाणं। [३] इसी प्रकार वैमानिकों तक (के बन्ध के विषय में जानना चाहिये।)
विवेचन—बन्ध के प्रकार, एवं चौवीस दण्डकों में बन्ध-निरूपण—प्रस्तुत तीन सूत्रों में बन्ध, उसके प्रकार एवं नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के जीवों के बन्ध के विषय में निरूपण किया गया है।
बन्ध का स्वरूप—आत्मा के साथ कर्म-पुद्गलों के सम्बन्ध को बन्ध कहते हैं। उसके तीन प्रकार हैं।
जीवप्रयोगबन्ध—जीव के प्रयोग से अर्थात् मन-वचन काया के व्यापार से आत्मा के साथ कर्मपुद्गलों का सम्बन्ध होना अर्थात्-आत्मप्रदेशों में सश्लेष होना जीवप्रयोगबन्ध कहलाता है। अनन्तरबन्धजिन पुद्गलों का बन्ध हुए अनन्तर-अव्यवहित समय है—दो-तीन आदि समय नहीं हुए, उनका बन्ध अनन्तरबंध कहलाता है और जिनके बन्ध को दो-तीन आदि समय हो चुके हैं, उनका बन्ध परस्परबन्ध कहा जाता है।
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७९१ .
(ख) भगवती-उपक्रम, पृ. ४५८