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________________ वीसवाँ शतक : उद्देशक-६] [५१ विवेचन—प्रस्तुत तीन अप्कायिक-विषयक सूत्रों (२१ से २३ तक) में पृथ्वीकायिक-विषयक १२ सूत्रों (सू.६ से १७ तक) के अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है। विशेष यह है कि यहाँ घनोदधिवलयों में अप्कायिकरूप से उत्पाद का निरूपण है। सत्तरहवें शतक के दसवें उद्देशक के अनुसार वायुकायिक जीवों के विषय में पूर्वपश्चात् आहार-उत्पाद-विषयक प्ररूपणा २४. वाउकाएण णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणिता जे भविए सोहम्मे कप्पे वाउकाइयत्ताए उववज्जित्तए० ? एवं जहा सत्तरसमसए वाउकाइयउद्देसए ( स० १७ उ० १० सु० १) तहा इह वि, नवरं अंतरेसु समोहणावेयव्वो, सेसं तं चेव जाव अणुत्तरविमाणाणं ईसिपब्भाराए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोह० २ जे भविए अहेसत्तमाए घणवात-तणुवाते घणवातवलएसु तणुवायवलएसु वाउक्काइयत्ताए उववजित्तए, सेसं तं चेव, से तेणठेणं जाव उववजेजा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। ॥ वीसइमे सए : छट्ठो उद्देसओ समत्तो॥२०-६॥ [२४ प्र.] भगवन् ! जो वायुकायिक जीव, इस रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा पृथ्वी के मध्य में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में वायुकायिक रूप से उत्पन्न होने योग्य है; इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ? _ [२४ उ.] गौतम ! जिस प्रकार सत्तरहवें शतक के दसवें वायुकायिक उद्देशक (के सूत्र १) में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिये। विशेष यह है कि रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों के अन्तरालों में मरणसमुद्घातपूर्वक कहना चाहिये। शेष सब पूर्ववत् जानना चहिये। इस प्रकार यावत् अनुत्तरविमानों और ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के मध्य में मरणसमुद्घात करके जो वायुकायिक जीव अधःसप्तमपृथ्वी में घनवात और तनुवात तथा घनवातवलयों और तनुवातवलयों में वायुकायिकरूप से उत्पन्न होने योग्य है, इत्यादि सब कथन पूर्ववत् जानना चाहिये,—यावत् 'इस कारण उत्पन्न होते हैं।' "हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन—प्रस्तुत सूत्र २४ में सत्तरहवें शतक के दसवें वायुकायिक उद्देशक के अतिदेशपूर्वक वायुकायिक जीव-विषयक निरूपण किया गया है। सभी आलापक पूर्ववत् ही हैं, किन्तु विशेष इतना ही है कि वायुकायिक जीव के विशेषण के रूप में घनवात-तनुवात तथा घनवात-तनुवात-वलयों में उत्पन्न होने योग्य—ऐसा निरूपण किया गया है। ॥ वीसवाँ शतक : छठा उद्देशक समाप्त॥ *** १. तीन उद्देशक-दूसरी वाचना के अभिप्रायानुसार यहाँ पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वायुकायिक विषयक पृथक्पृथक् उद्देशक माने गए हैं। -अ.वृ.
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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