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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के सू. १) के समान जानना चाहिये; यावत् इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि ......... इत्यादि।
१९. एवं पढम-दोच्चाणं अंतरा समोहयओ जाव ईसिपब्भाराए य उववातेयव्यो।
[१९] इसी प्रकार पहली और दूसरी पृथ्वी के बीच में मरणसमुद्घातपूर्वक अप्कायिक जीवों का यावत् ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक उपपात (आलापक) जानना चाहिये।
२०. एवं एएणं कमेणं जाव तमाए अहेसत्तमाए य पुढवीए अंतरा० समोहए० समो० २ जाव इसिपब्भाराए उववातेयव्वो आउक्काइयत्ताए।
[२०] इसी प्रकार इसी क्रम से यावत् तमःप्रभा और अध:सप्तमा पृथ्वी के मध्य में मरणसमुद्घातपूर्वक अप्कायिक जीवों का यावत् ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक अप्कायिक रूप से उपपात जानना चाहिए।
विवेचन—प्रस्तुत तीन अप्कायिक-विषयक सूत्रों (१८ से २० तक) में पृथ्वीकायिक जीव विषयक पांच सूत्रों (स.१ से ५ तक) के अतिदेशपूर्वक अप्कायिक जीवों के विषय में निरूपण किया गया है। पृथ्वीकायिक-विषयक सूत्रों के अतिदेशपूर्वक अप्कायिक जीवविषयक (विशिष्ट परिस्थिति में) पूर्व-पश्चात् आहार-उत्पाद प्ररूपणा
२१. आउयाए णं भंते ! सोहम्मीसाणाणं सणंकुमार-माहिंदाण य कप्पाणं अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' घणोदधिवलएसु आउकाइयत्ताए उववजित्तए० ?
सेसं तं चेव।
[२१प्र.] भगवन् ! जो अप्कायिक जीव, सौधर्म-ईशान और सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्प के बीच में मरणसमुद्घात करके रत्नप्रभा-पृथ्वी में (घनोदधि और) घनोदधि-वलयों में अप्कायिक-रूप में उत्पन्न होने योग्य है ; इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न।
[२१ उ.] (गौतम ! 'अप्कायिक' इस शब्दोच्चार के सिवाय) शेष सब (निरूपण) पृथ्वीकायिक के समान (सू. ६ के उल्लेखानुसार) जानना चाहिए।
२२. एवं एएहिं चेव अंतरा समोहयओ जाव अहेसत्तमाए पुढवीए घणोदधिवलएसु आउकाइयत्ताए उववाएयव्वो।
[२२] इस प्रकार इन (पूर्वोक्त) अन्तरालों में मरणसमुद्घात को प्राप्त अप्कायिक जीवों का अध:सप्तमपृथ्वी तक के (घनोदधि और) घनोदधिवलयों में अप्कायिकरूप से उपपात कहना चाहिए।
२३. एवं जाव अणुत्तरविमाणाणं ईसिपब्भाराए य पुढवीए अंतरा समोहए जाव अहेसत्तमाए घणोदधिवलएसु उववातेयव्यो।
[२३] इसी प्रकार यावत् अनुत्तरविमान और ईषत्प्राग्भारापृथ्वी के बीच मरणसमुद्घात प्राप्त अप्कायिक जीवों का अधःसप्तमपृथ्वी तक के (घनोदधि और) घनोदधिवलयों में अप्कायिक के रूप में उपपात जानना चाहिए।
१. पाठभेद-यहाँ "घणोदधि-घणोदधिवलएस" इस प्रकार का पाठभेद है।