SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६ ] छठो उद्देसओ : 'अन्तर' छठा उद्देशक : 'अन्तर ' प्रथम से सप्तम नरकपृथ्वी तक की दो-दो पृथ्वियों के बीच में मरणसमुद्घात करके सौधर्मादिकल्प से ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक पृथ्वीकायिकरूप में उत्पन्न होने योग्य पृथ्वीकायिक द्वारा पूर्व-पश्चात् आहार- उत्पाद-निरूपण १. पुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहण्णित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! किं पुव्विं उववज्जित्ता पच्छा आहारेज्जा, पुव्विं आहारेत्ता पच्छा उववज्जेज्जा ? गोयमा ! पुव्विं वा उववज्जित्ता० एवं जहा सत्तरसमसए छट्ठदेसे (स० १७ उ० ६ सु० १ ) जाव से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ पुव्विं वा जाव उववज्जेज्जा, नवरं तर्हि संपाउणणा, इमेहिं आहारो भाइ, सेसं तं चेव । [१ प्र.] भगवन् ! जो पृथ्विकायिक जीव, इस रत्नप्रभापृथ्वी और शर्कराप्रभापृथ्वी के बीच में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में पृथ्वीकायिक के रूप में उत्पन्न होने योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करते हैं, अथवा पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं ? [१ उ.] गौतम ! वे पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करते हैं अथवा पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं; इत्यादि वर्णन सत्तरहवें शतक के छठे उद्देशक के (सू. १ के) अनुसार यावत् — हे गौतम ! इसलिए ऐसा कहा जाता है कि यावत् पीछे उत्पन्न होते हैं; (यहाँ तक कहना चाहिए ।) विशेष यह है कि वहाँ पृथ्वीकायिक 'सम्प्राप्त करते हैं— पुद्गल - ग्रहण करते हैं' – ऐसा कहा है, और यहाँ ' आहार करते हैं' ऐसा कहना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् । —- २. पुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए० जे भविए ईसाणे कप्पे पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए० ? एवं चेव । [२ प्र.] भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा पृथ्वी के मध्य में मरणसमुद्घात करके ईशानकल्प में पृथ्वीकायिकरूप से उत्पन्न होने योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करते हैं या पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं ? [२ उ.] गौतम ! (इसका उत्तर भी) पूर्ववत् (समझना चाहिए)। ३. एवं जाव ईसिपब्भाराए उववातेयव्वो ।
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy