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वीसवाँ शतक : उद्देशक-६]
[४७ [३] इसी प्रकार (सनतकुमार से लेकर) ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक (उपपात आलापक) कहना चाहिए।
४. पुढविकाइए णं भंते ! सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समो० २ जे भविए सोहम्मे कप्पे जाव ईसिपब्भाराए.?
एवं।
[४ प्र.] भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा के मध्य में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में यावत् ईषत्प्राग्भारापृथ्वी में उत्पन्न होने योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करते हैं, या पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं ?
[४ उ.] ये (सब आलापक) पूर्ववत् कहने चाहिए।
५. एएणं कमेणं जाव तमाए अहेसत्तमाए य पुढवीए अंतरा समोहए समाणे जे भविए सोहम्मे जाव ईसिपब्भाराए उववाएयव्यो।
[५] इसी क्रम से यावत् तम:प्रभा और अधःसप्तम पृथ्वी के मध्य में मरणसमुद्घात करके (पृथ्वीकायिक जीवों में) सौधर्मकल्प (से लेकर) यावत् ईषत्प्राग्भारापृथ्वी में (पूर्ववत्) उपपात (आलापक) कहने चाहिए।
विवेचन—प्रस्तुत सूत्रों (सू. १ से ५ तक) में पृथ्वीकायिक जीव, जो रत्नप्रभादि दो-दो नरकपृथ्वियों के बीच में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प से लेकर ईशत्प्राग्भारापृथ्वी में, पृथ्वीकायिकरूप में उत्पन्न होने योग्य हैं, उनका पहले उत्पाद होकर पीछे आहार होता है, अथवा पहले आहार होकर पीछे उत्पाद होता है ? यह चर्चा की गई है।
पहले उत्पाद और पीछे आहार या पहले आहार और पीछे उत्पाद का तात्पर्य—जो जीव गेंद के समान समुद्घातगामी होता है, वह मर कर पहले उत्पत्तिस्थान में उत्पन्न होता है, अर्थात् उत्पत्तिस्थान में जाता है। तत्पश्चात् आहार करता है, अर्थात्-आहार-प्रायोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। किन्तु जो जीव ईलिका की गति के समान समुद्घातगामी (समुद्घात करके उत्पत्तिक्षेत्र में उत्पन्न होने हेतु जाने वाला होता है, वह पहले आहार करता है, अर्थात्-उत्पत्तिक्षेत्र में प्रदेश-प्रक्षेप (पहुँचाए हुए प्रदेशों ) के द्वारा आहार ग्रहण करता है और इसके पश्चात्-पूर्व शरीर में रहे हुए प्रदेशों को उत्पतिक्षेत्र में खींचता है। सौधर्मादिकल्प से ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक के बीच में मरणसमुद्घात करके रत्नप्रभा से अधःसप्तम पृथ्वी तक पृथ्वीकायिकरूप में उत्पन्न होने योग्य पृथ्वीकायिक की पूर्वपश्चात् आहार-उत्पाद-प्ररूपणा
६. पुढविकाइए णं भंते ! सोहम्मीसाणाणं सणंकुमार-माहिंदाण य कप्पाणं अंतरा समोहए, समो० २ जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! किं पुव्विं उववजित्ता पच्छा आहारेज्जा ? १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७९०