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बीओ उद्देसओ : 'आगासे'
द्वितीय उद्देशक : आकाश [ आदि पंचास्तिकायसम्बन्धी ]
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आकाशास्तिकाय के भेद, स्वरूप तथा पंचास्तिकायों का प्रमाण १. कतिविधे णं भंते ! आगासे पन्नत्ते ?
गोयमा ! दुविधे आगासे पन्नत्ते, तं जहा— लोयागासे य अलोयागासे य ।
[१ प्र. ] भगवन् ! आकाश कितने प्रकार का कहा गया है ?
[१ उ.] गौतम ! आकाश दो प्रकार का कहा गया है, यथा— लोकाकाश और अलोकाकाश । २. लोयागासे णं भंते! किं जीवा, जीवादेसा ?
एवं जहा बितिय अत्थिउद्देसे (स० २ उ०१० सु० ११-१३ ) तह चेव इह वि भाणियव्वं, नवरं‘अभिलावो जाव धम्मत्थिकाए णं भंते ! केमहालए पन्नत्ते ? गोयमा ! लोए लोयमेत्ते लोयपमाणे लोकफुडे लोयं चेव ओगाहित्ताणं चिट्ठइ । एवं जाव पोग्गलत्थकाए ।
[२ प्र.] भगवन् ! क्या लोकाकाश जीवरूप है, अथवा जीवदेश-रूप है ?
[२ उ.] गौतम ! द्वितीय शतक के दशवें अस्ति- उद्देशक (सू. ११-१३) में जिस प्रकार का कथन किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए । विशेष में यह अभिलाप भी धर्मास्तिकाय से लेकर पुद्गलास्तिकाय तक यहाँ कहना चाहिए——
[प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय कितना बड़ा है ?
[उ.] गौतम ! धर्मास्तिकाय लोक, लोकमात्र, लोक-प्रमाण, लोक-स्पृष्ट और लोक को अवगाढ करके रहा हुआ है, इसी प्रकार पुद्गलास्तिकाय तक कहना चाहिए।
विवेचन — एक अखण्ड आकाश के ये दो भेद ?
आकाशद्रव्य मूलतः एक ही है, फिर भी आधारभूत आकाश की अपेक्षा से किये गए
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उसके ये जो दो भेद किये गए हैं, वे जीव- अजीव आदि द्रव्यों हैं । अर्थात् जीवादि द्रव्य आकाश के जितने भाग में पाए जाते हैं, वह लोकाकाश है और इससे अतिरिक्त भाग अलोकाकाश है।
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अभिलाप का अतिदेश - विशेष — प्रस्तुत सूत्र (२) में द्वितीय शतक के जिस अभिलाप-विशेष का अतिदेश किया गया है, वहाँ चार बातें विशेष रूप से समझ लेनी चाहिए— ( १ ) 'लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ' के स्थान में ‘लोयं चेव ओगाहित्ताणं चिट्ठइ' समझना (२) यह अभिलाप 'जाव धम्मात्थिकाय' से
१. भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका, भाग १३. पृ. ४९९