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________________ १२] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र लेकर 'अलोयागासे णं भंते !' इत्यादि समग्र अलोकाकाश-सूत्र यहाँ कहना चाहिए, (३) लोकाकाश जीवरूप भी है, जीवदेशरूप भी और जीवप्रदेशरूप भी है इत्यादि समस्त कथन। (४) धर्मास्तिकायादि पांचों अस्तिकाय लोक को छूते हैं और लोक को व्याप्त करके ठहरे हुए हैं। अधोलोक आदि में धर्मास्तिकायादि की अवगाहना-प्ररूपणा ३. अहेलोए णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स केवतियं ओगाढे ? गोयमा ! सातिरेगं अद्धं ओगाढे । एवं एएणं अभिलावेणं जहा बितियसए ( स० २ उ० १० सु० १५-२१) जाव ईसिपब्भारा णं भंते ! पुढवी लोयागासस्स किं संखेजइभागं ओगाढा ?० पुच्छा। गोयमा ! नो संखेजतिभागं ओगाढा; असंखेजतिभागं ओगाढा; नो संखेजे भागे, नो असंखेज्जे भागे, नो सव्वलोयं ओगाढा। सेसं तं चेव। [३ प्र.] भगवन् ! अधोलोक, धर्मास्तिकाय के कितने भाग को अवगाढ़ करके रहा हुआ है ? [३ उ.] गौतम ! वह कुछ अधिक अर्द्धभाग को अवगाढ कर रहा हुआ है । इस प्रकार इस अभिलाप द्वारा दूसरे शतक के दशवें उद्देशक (सू. १५-२१) में कथित वर्णन यहाँ भी समझना चाहिए; यावत् [प्र.] भगवन् ! ईषत्प्राग्भारापृथ्वी लोकाकाश के संख्यातवें भाग को अवगाहित करके रही हुई है अथवा असंख्यातवें भाग को इत्यादि, प्रश्न है। _[उ.] गौतम ! वह लोकाकाश के संख्यातवें भाग को अवगाहित नहीं की हुई है, किन्तु असंख्यातवें भाग को अवगाहित की हुई है, (वह लोक के) संख्यात भागों को अथवा असंख्यात भागों को भी व्याप्त करके स्थित नहीं है और न समग्र लोक को व्याप्त करके स्थित है। शेष सब पूर्ववत्। विवेचन-इस पंक्ति का फलितार्थ यह है कि ईषत्प्राग्भारापृथ्वी अर्थात् सिद्धशिला न तो समग्र लोक को व्याप्त करके स्थित है, न ही लोक के संख्यात-असंख्यात भागों को, न संख्यातवें भाग को, किन्तु लोक के असंख्यातवें भाग को ही व्याप्त करके स्थित है। धर्मास्तिकाय के पर्यायवाची शब्द.. ४. धम्मत्थिकायस्स णं भंते ! केवतिया अभिवयणा पन्नत्ता ? गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पत्नत्ता, जहा—धम्मे ति वा, धम्मत्थिकाये ति वा, पाणातिवायवेरमाणे ति वा, मुसावायवेरमणे ति वा, एवं जाव परिग्गहवेरमणे ति वा, कोहविवेगे ति वा जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे ति वा, इरियासमिति ति वा, भासास० एसणास० आदाणभंडमत्तनिक्खेवणस० उच्चार-पासवणखेल-सिंघाण-पारिट्ठावणियासमिति ति वा, मणगुत्ती ति वा, वइगुत्ती ति वा, कायगुत्ती ति वा, जे यावऽन्ने तहप्पगारा सव्वे ते धम्मत्थिकायस्स अभिवयणा। १. भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका, भाग १३, पृ. ५००-५०१ २. भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका भाग, १३, पृ.५०२
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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