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________________ वीसवाँ शतक : उद्देशक-१] जेसि पिणं जीवाणं ते जीवा एवमाहिजंति तेसिं पिणं जीवाणं अत्थेगइयाणं विनाए नाणत्ते, अत्थेगइयाणं नो विनाए नाणत्ते। उववातो सव्वतो जाव सव्वट्ठसिद्धाओ। ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं।छस्समुग्धाया केवलिवजा। उव्वट्टणा सव्वत्थ गच्छंति जाव सव्वट्ठसिद्धं ति। सेसं जहा बेंदियाणं। [१० प्र.] भगवन् ! क्या ऐसा कहा जाता है कि वे (पंचेन्द्रिय) जीव प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में रहे हुए हैं ? इत्यादि प्रश्न है। [१० उ.] गौतम ! उनमें से कई (पंचेन्द्रिय) जीव प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य में रहे हुए हैं, ऐसा कहा जाता है और कई जीव प्राणातिपात, मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शन शल्य में नहीं रहे हुए हैं, ऐसा कहा जाता है। जिन जीवों के प्रति वे प्राणातिपात आदि (का व्यवहार) करते हैं, उन जीवों में से कई जीवों को—'हम मारे जाते हैं, और ये हमें मारने वाले हैं ' इस प्रकार का विज्ञान होता है और कई जीवों को इस प्रकार का ज्ञान नहीं होता। उन जीवों का उत्पाद सर्व जीवों से यावत् सर्वार्थसिद्ध से भी होता है। उनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की होती है। उनमें केवलीसमुद्घात को छोड़ कर (शेष) छह समुद्घात होते हैं। वे मर कर सर्वत्र सर्वार्थसिद्ध तक जाते हैं। शेष सब बातें द्वीन्द्रियजीवों के समान जाननी चाहिए। विवेचन-पंचेन्द्रियजीवों में स्यात् आदि द्वारों की प्ररूपणा–पूर्ववत् स्यात् आदि द्वारों का पंचेन्द्रियजीवों में निरूपण किया गया है। संज्ञी और असंज्ञी पंचेन्द्रियजीवों में अन्तर—संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को ऐसा ज्ञान हुआ करता है कि हम आहार कर रहे हैं, अथवा हम इष्ट या अनिष्ट शब्द, रूप, रस, गन्ध या स्पर्श का अनुभव कर रहे हैं, इसी प्रकार वे वध्य और घातक के भेदज्ञान से युक्त होते हैं कि हम इनके द्वारा मारे जा रहे हैं और ये हमें मारने वाले हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रियजीवों को न तो इष्ट रसादि का विवेक होता है और न वध्य-घातक का भेदज्ञान होता है। द्वीन्द्रियजीवों से पंचेन्द्रियजीवों में अन्तर—द्वीन्द्रियजीवों में आदि की तीन ही लेश्याएं होती हैं, जब कि पंचेन्द्रियजीवों में छहों लेश्याएं होती हैं। द्वीन्द्रियजीवों में सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि ये दो ही दृष्टियाँ पाई जाती हैं, जब कि पंचेन्द्रियजीवों में तीसरी सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी पाई जाती है। वहाँ मति और श्रुत ज्ञान होता है, जबकि यहाँ मत्यादि चार ज्ञान भजना से कहे गए हैं। जिसे केवलज्ञान होता है, उसके एक ही ज्ञान होता है। इनमें तीन अज्ञान विकल्प से होते हैं, नियम से नहीं। द्वीन्द्रियजीवों में वचनयोग और काययोग ही होते हैं, जबकि पंचेन्द्रिय में तीनों योग होते हैं। इनकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है और उत्पादन सर्वार्थसिद्धि तक सर्वत्र होता है। 'प्राणातिपात' आदि से रहित कौन, सहित कौन?—असंयतजीव प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य वाले होते हैं जबकि संयतजीव इनसे रहित होते हैं।
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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