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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विशेष यह है कि जिसके जो और जितने करण हों, वे सब कहने चाहिए।
विवेचन–शरीरादि करणों की प्ररूपणा—शरीर पांच हैं-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण। इन्द्रियां पांच हैं— श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय। चार प्रकार की भाषा-सत्यभाषा, असत्यभाषा, मिश्रभाषा और व्यवहारभाषा। चार प्रकार का मन-सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, मिश्रमनोयोग और व्यवहारमनोयोग। चार प्रकार का कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ । चार संज्ञाएँ-आहारसंज्ञा, भय संज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा । सात प्रकार का समुद्घात–वेदनीय, कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और केवली। छह लेश्याएँ-कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल। तीन दृष्टियाँ–सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि। तीन वेद—स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद। इस प्रकार शरीर से लेकर वेद करण तक द्रव्यकरण के अन्तर्गत हैं। प्राणातिपातकरण : पांच भेद, चौवीस दण्डकों में निरूपण
९. कतिविधे णं भंते ! पाणातिवायकरणे पन्नत्ते ?
गोयमा! पंचविधे पाणातिवायकरणे पन्नत्ते, तं जहा—एगिदियपाणातिवायकरणे जाव पंचेंदियपाणातिवायकरणे।
[९ प्र.] भगवन् ! प्राणातिपातकरण कितने प्रकार का कहा गया है ?
[९ उ.] गौतम! प्राणातिपातकरण पांच प्रकार का कहा गया है। यथा—एकेन्द्रिय-प्राणातिपातकरण यावत् पंचेन्द्रियप्राणातिपातकरण।।
१०. एवं निरवसेसं जाव वेमाणियाणं।
[१०] इसी प्रकार (नैरयिकों से लेकर) वैमानिकों तक (चौवीस दण्डकों में इन सब पंचविध प्राणातिपात करण का कथन करना चाहिए)।
_ विवेचन-पंचविध प्राणातिपातकरण—एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक जीव पांच प्रकार के हैं, इसलिए इनके प्राणातिपातरूप करण भी पांच प्रकार के बताए हैं। ये पंचविध प्राणांतिपातकरण समग्र संसारी जीवों में पाए जाते हैं । ये भावकरण के अन्तर्गत हैं। पुद्गलकरण : भेद-प्रभेद-निरूपण
११. कइविधे णं भंते ! पोग्गलकरणे पन्नत्ते ?
गोयमा ! पंचविधे पोग्गलकरणे पन्नत्ते, तं जहा वण्णकरणे गंधकरणे रसकरणे फासकरणे संठाणकरणे।
[११ प्र.] भगवन्! पुद्गलकरण कितने प्रकार का कहा गया है ?
१. भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका, भाग. १३, पृ. ४५६-४५७ २. भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका. भाग. १३, पृ. ४६२