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________________ अठारहवाँ शतक : उद्देशक-१० ७६३ को वन्दन-नमस्कार किया, इत्यादि सारा वर्णन (द्वितीय शतक, प्रथम उद्देशक के सू. ३२-३.४ में उल्लिखित) स्कन्दक के समान जानना चाहिए, यावत्—उसने कहा—भगवन् ! जैसा आपने कहा, वह वैसा ही है। जिस प्रकार आप देवानुप्रिय के सान्निध्य में बहुत से राजा-महाराजा आदि, हिरण्यादि का त्याग करके मुण्डित होकर अगारधर्म से अनगारधर्म में प्रव्रजित होते हैं, उस प्रकार करने में मैं अभी समर्थ नहीं हूँ, इत्यादि सारा वृतान्त राजप्रश्नीयसूत्र (सूत्र २२० से २२२ तक पृ. १४२-१४४, आ. प्र. स.) में उल्लिखित चित्त सारथि के समान कहना, यावत्-बारह प्रकार के श्रावकधर्म को स्वीकार किया। श्रावकधर्म को अंगीकार करके श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार करके यावत् अपने घर लौट गया। इस प्रकार सोमिल ब्राह्मण श्रमणोपासक हो गया। अब वह जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता होकर यावत् विचरने लगा। - विवेचन--प्रस्तुत सू. १८ में वर्णन है कि भगवान् के द्वारा किये गये समाधान से सन्तुष्ट सोमिल ब्राह्मण प्रतिबुद्ध हुआ। उसने भगवान् से श्रद्धापूर्वक श्रावकधर्म स्वीकार किया। समग्र वृत्तान्त द्वितीय शतक में कथित स्कन्दक एवं राजप्रश्नीय सूत्र में कथित चित्तसारथि के अतिदेशपूर्वक संक्षेप में प्रतिपादित किया गया है। सोमिल के प्रव्रजित होने आदि के सम्बन्ध में गौतम के प्रश्न का भगवान् द्वारा समाधान ... २९. भंते!' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वं. २ एवं वदासि—पभूणं भंते ! सोमिल माहणे देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता? जहेव संखे ( स. १२ उ. १ सु. ३१) तहेव निरवसेसं जाय अंतं काहिति। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरति। ॥अट्ठारसमे सए : दसमो उद्देसओ समत्तो॥ १८-१०॥ ॥अट्ठारहसमं सयं समत्तं॥ १८॥ [२९ प्र.] 'भगवन् !' इस प्रकार सम्बोधित कर भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा—'भगवन् ! क्या सोमिल ब्राह्मण आप देवानुप्रिय के पास मुण्डित होकर अगारधर्म से अनगारधर्म में प्रव्रजित होने से समर्थ है ?' इत्यादि। [२९ उ.] (इसके उत्तर में—) शतक १२ उ. १ सू. ३१ में कथित शंख श्रमणोपासक के समान समग्र वर्णन, सर्वदुःखों का अन्त करेगा, (यहाँ तक कहना चाहिए)। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन—सोमिल ब्राह्मण के भविष्य में प्रव्रजित होने इत्यादि के सम्बन्ध में श्री गौतम स्वामी द्वारा पूछे गए प्रश्न का प्रस्तुत सू. २१ में १२ वें शतक के अतिदेशपूर्वक समाधान प्रस्तुत किया गया है। ॥अठारहवां शतक : दसवाँ उद्देशक समाप्त॥ ॥अठारहवाँ शतक सम्पूर्ण ०००
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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