SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 795
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६२ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र से दो हूँ।आत्म-प्रदेशों की अपेक्षा से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ और अवस्थित (कालत्रय स्थायी नित्य) हूँ, तथा (विविध विषयों के ) उपयोग की दृष्टि से मैं अनेकभूत-भाव-भविक (भूत और भविष्य के विविध परिणामों के योग्य) भी हूँ। हे सोमिल ! इसी दृष्टि से (कहा था कि मैं एक भी हूँ,) यावत् अनेकभूत-भाव-भविक भी हूँ। विवेचन–सोमिल के एक-अनेकादि-विषयक प्रश्न का भगवान् द्वारा समाधान—इस-सूत्र में छल, उपहास एवं अपमान आदि भाव छोड़कर सोमिल द्वारा तत्त्वज्ञान की जिज्ञासा से प्रेरित हो कर पूछे गए प्रश्न का समाधान अंकित है। एक हैं या दो ?–सोमिल के द्विविधाभरे प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने स्याद्वादशैली का आश्रय लेकर उत्तर दिया। आशय यह है कि मैं जीव (आत्मा) द्रव्य की अपेक्षा से एक हूँ, प्रदेशों की अपेक्षा से नहीं । ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा से मैं दो हूँ, एक ही पदार्थ किसी एक स्वभाव की अपेक्षा एक हो सकता है, वही पदार्थ दूसरे दो स्वभावों की अपेक्षा दो हो सकता है। इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है। जैसेदेवदत्तादि कोई एक पुरुष एक ही समय में उन-उन अपेक्षाओं से पिता, पुत्र, भ्राता, भतीजा, भानजा आदि कहला सकता है। इसीलिए भगवान् ने एक अपेक्षा से स्वयं को एक और दूसरी अपेक्षा से दो कहा। __अक्षय, अव्यय आदि किस दृष्टि से हैं ?-आत्मा के नित्यत्व अनित्यत्व पक्ष को लेकर सोमिल द्वारा पछा गया था कि आप अक्षय आदि हैं अथवा यावत अनेकभतभाव-भविक हैं? अक्षय. अव्यय. अवस्थित आदि आत्मा के नित्य पक्ष से सम्बन्धित हैं और अनेक भूत-भाव-भविक अनित्यपक्ष से सम्बन्धित हैं। भगवान् ने दोनों पक्षों को स्वीकार करके स्वावाद शैली से उत्तर दिया है। जिसका आशय यह है कि आत्मप्रदेशों का सर्वथा क्षय न होने से मैं अक्षय हूँ, तथा आत्मा असंख्यप्रदेशात्मक होने से मैं अक्षत भी हूँ। कतिपयप्रदेशोंका व्यय न होने से मैं अव्यय भी हूँ। आत्मा यद्यपि विविध गतियों एवं योनियों में जाता है, इस अपेक्षा से कथंचित् अनित्य मानने पर भी उसकी असंख्यप्रदेशिता कदापि नष्ट नहीं होती, इस दृष्टि से आत्मा अवस्थित (कालत्रयस्थायी) है, अर्थात् नित्य है। विविध विषयों के उपयोग वाला होने से आत्मा अनेक-भूतभाव-भाविक भी है। आशय यह है कि अतीत और अनागतकाल के अनेक विषयों का बोध आत्मा से कथंचित् अभिन्न होने से भूत भावी एवं सत्ता के परिणामों (पर्यायों) की अपेक्षा से आत्मा का अनित्यपक्ष भी दोषापत्तिजनक नहीं है। सोमिल द्वारा श्रावकधर्म का स्वीकार २८. एत्थ णं से सोमिले माहणे संबुद्धे समणं भगवं महावीरं जहा खंदओ (स. २ उ. १ सु. ३२३४) जाव से जहेयं तुम्भे वदह। जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतियं बहवे राईसर एवं जहा रायप्पसेणइज्जे चित्तो जाव दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जइ, प० २ समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वं. २ जाव पडिगए। तए णं से सोमिले माहणे समणोवासए जाव अभिगय० जाव विहरइ। [२८] भगवान् की अमृतवाणी सुनकर वह सोमिल ब्राह्मण सम्बुद्ध हुआ। उसने श्रमण भगवान् महावीर १-२. भगवतीसूत्र . अ. वृत्ति, पत्र ७६०
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy