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एगूणवीसइमं सयं : उन्नीसवाँ शतक
प्राथमिक
भगवती सूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति) के इस उन्नीसवें शतक में दश उद्देशक हैं ।
प्रथम उद्देशक का नाम 'लेश्या' है। इसमें प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशानुसार लेश्या का स्वरूप, लेश्या का कारण, लेश्या का प्रभाव, सामर्थ्य, तथा सम्बध्यमान लेश्या और अवस्थित लेश्या, इन दोनों लेश्याओं के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है।
द्वितीय उद्देशक का नाम 'गर्भ' है। इसमें बताया गया है कि एक लेश्या वाला दूसरी लेश्या वाले गर्भ का उत्पादन करता है। जिस जीव के जितनी लेश्याएं हों, उसके उतनी लेश्याओं से लेश्यान्तर वाले के गर्भ में परिणमन होना बताया है।
तृतीय उद्देशक का नाम 'पृथ्वी' है। इसमें सर्वप्रथम स्यात्, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान आदि बारह द्वारों के माध्यम से पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में प्ररूपणा की गई है । तत्पश्चात् अप्-तेजो वायु तथा वनस्पतिकायिकों के साधारण शरीरादि के विषय में पूर्वोक्त १२ द्वारों के माध्यम से कथन किया गया है। फिर पांच स्थावरों की अवगाहना की दृष्टि से अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है । तदनन्तर पांच स्थावरों में सूक्ष्म-सूक्ष्मतर तथा बादर - बादरतर का प्रतिपादन है। फिर पृथ्वीकाय के शरीर की महती अवगाहना का माप दृष्टान्तपूर्वक प्रदर्शित किया गया है।
चतुर्थ उद्देशक 'महास्रव' है। इसमें नैरयिक, भवनपति, वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में महास्राव, महाक्रिया, महावेदना और महानिर्जरा इन चारों के १६ भंगों में से पाए जाने वाले भंगों का निरूपण है ।
पंचम उद्देशक का नाम 'चरम' है। इसमें सर्वप्रथम नैरयिकादि चौवीस दण्डकों में चरमत्व एवं परमत्व की प्ररूपणा है, साथ ही चरम नैरयिक आदि की अपेक्षा से परम नैरयिकादि महास्रवादि चतुष्क वाले हैं, तथा परम नैरयिकादि की अपेक्षा चरम नैरयिकादि अल्पास्रवादि चतुष्क वाले हैं, इत्यादि प्ररूपणा की गई है । तत्पश्चात् निदा और अनिदा, ये वेदना के दो प्रकार बताकर इनका चौवीस दण्डकों में प्ररूपण किया गया है।
छठे उद्देशक का नाम 'द्वीप' है। इसमें जम्बूद्वीप आदि द्वीपों और लवणसमुद्र आदि समुद्रों के संस्थान, लम्बाई, चौड़ाई, दूरी इनमें जीवों की उत्पत्ति आदि के सम्बन्ध में जीवाभिगमसूत्र के अतिदेशपूर्वक