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अठारहवाँ शतक : उद्देशक-१०
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और सहपांशुक्रीडित (एक साथ धूल में खेले हुए)। ये तीनों प्रकार के सरिसव श्रमणों निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं। उनमें से जो धान्यसरिसव हैं, वह भी दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा—शस्त्रपरिणत और अशस्त्रपरिणत । जो अशस्त्रपरिणत हैं, वे श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं। जो शस्त्रपरिणत हैं, वह भी दो प्रकार के हैं, यथाएषणीय (निर्दोष) और अनेषणीय (सदोष)। अनेषणीय सरिसव तो श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं। एषणीय सरिसव दो प्रकार के हैं, यथा—याचित (मांग कर लिये हुए) और अयाचित (बिना मांगे हुए)। अयाचित श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं । याचित भी दो प्रकार के हैं, यथा-लब्ध (मिले हुए) और अलब्ध (नहीं मिले हुए) । अलब्ध श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं और जो लब्ध हैं, वह श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए भक्ष्य हैं । इस कारण से, हे सोमिल ! ऐसा कहा गया है कि 'सरिसव' मेरे लिए भक्ष्य भी हैं, और अभक्ष्य भी
विवेचन—'सरिसव' किस दृष्टि से भक्ष्य हैं, किस दृष्टि से अभक्ष्य?—प्रस्तुत सू. २४ में सोमिल ब्राह्मण द्वारा छलपूर्वक उपहास करने की दृष्टि से भगवान् से पूछे गये 'सरिसव'-भक्ष्याभक्ष्य विषयक प्रश्न का विभिन्न पहलुओं से दिया गया उत्तर अंकित है।
'सरिसव' शब्द का विश्लेषण—'सरिसव' प्राकृतभाषा का श्लिष्ट शब्द है । संस्कृत में इसके दो रूप होते हैं—(१) सर्षप और (२) सदृशवया।सर्षप का अर्थ है—सरसों (धान्य) और सरिसवया का अर्थ है— समवयस्क -हमजोली मित्र या सहजात. सहक्रीडित। ये तीनों प्रकार के मित्रसरिसव श्रमणनिर्ग्रन्थ के लिए अभक्ष्य हैं। अब रहे सर्षपधान्य, वे भी अशस्त्रपरिणत, अनेषणीय, अयाचित और अलब्ध हों तो श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए अकल्पनीय-अग्राह्य (अग्राह्य) होने से अभक्ष्य हैं, किन्तु जो सर्षप एषणीय (निर्दोष), शस्त्रपरिणत, याचित और लब्ध हैं, वे श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए भक्ष्य हैं। मास एवं कुलत्था के भक्ष्याभक्ष्यविषयक सोमिलप्रश्न का भगवान् द्वारा समाधान
२५. [१] मासा ते भंते ! किं भक्खेया, अभक्खेया ? सोमिला ! मासा मे भक्खेया वि, अभक्खेया वि। [२५ -१ प्र.] भगवन् ! आपके मत में 'मास' भक्ष्य है या अभक्ष्य है ? [२५-२ उ.] सोमिल ! 'मास' भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है। [२] से केणढेणं जाव अभक्खेया वि?
से नूणं सोमिला ! बंभण्णएसु नएसु दुविहा मासा पन्नत्ता, तं जहा—दव्वमासा य कालमासा य। तत्थ णं जे ते कालमासा ते णं सावणादीया आसाढपजवसाणा दुवालस, तं जहा—सावणे भद्दवए आसोए कत्तिए मग्गसिरे पोसे माहे फग्गुणे चेत्ते वइसाहे जेट्ठामूले आसाढे। ते णं समणाणं १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७६०
(ख) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा.६, पृ. २७६१