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________________ अठारहवां शतक : उद्देशक-१० ७५७ इंदियजवणिज्जे मे सोतिंदिय—चक्खिदिय-घाणिंदिय-जिभिदिय-फासिंदियाई निरुवहयाई वसे वटुंति, से त्तं इंदियजवणिज्जे। [२० प्र.] भगवन् ! वह इन्द्रिय-यापनीय क्या है ? [२० उ.] सोमिल ! श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय, ये (मेरी) पांचों इन्द्रियाँ निरुपहत (उपघातरहित) और वश में (रहती) हैं, यह मेरा इन्द्रिय-यापनीय है। २१. से किं तं नोइंदियजवणिज्जे ? नोइंदियजवणिज्जे–जं मे कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिन्ना, नो उदीरेंति, से त्तं नोइंदियजवणिज्जे। से तं जवणिज्जे। [२१ प्र.] भंते ! वह नोइन्द्रिय-यापनीय क्या है ? [२१ उ.] सोमिल ! जो मेरे क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषाय व्युच्छिन्न (नष्ट) हो गए हैं, और उदयप्राप्त नहीं हैं; यह मेरा नोइन्द्रिय-यापनीय है। इस प्रकार मेरे ये यापनीय हैं। २२. किं ते भंते ! अव्वाबाहं ? सोमिला ! जं मे वातिय-पित्तिय-सेंभिय-सन्निवातिया विविहा रोगायंका सरीरगया दोसा उवसंता, नो उदीरेंति, से त्तं अव्वाबाहं। [२२ प्र.] भगवन् ! आपके अव्याबाध क्या है ? [२२ उ.] सोमिल ! मेरे वातज, पित्तज, कफज और सन्निपातजन्य तथा अनेक प्रकार के शरीर सम्बन्धी रोग, आतंक एवं शरीरगत दोष उपशान्त हो गए हैं, वे उदय में नहीं आते। यही मेरा अव्याबाध है। २३. किं ते भंते ! फासुयविहारं ? सोमिल ! जं णं आरामेसु उज्जाणेसु देवकुलेसु सभासु पवासु इत्थी-पसु-पंडगविवज्जियासु वसहीसु फासुएसणिज्जं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगं उवसंपज्जित्ताणं विहरामि, से त्तं फासुयविहारं। [ २३ प्र.] भगवन् ! आपके प्रासुकविहार कौन-सा है ? [२३ उ.] सोमिल ! आराम (बगीचे), उद्यान (बाग), देवकुल (देवालय), सभा और प्रपा (प्याऊ) आदि स्थानों में स्त्री-पशु-नपुंसकवर्जित वसतियों (आवासस्थानों) में प्रासुक, एषणीय पीठ (पीढा-बाजोट), फलक (तख्ता), शय्या, संस्तारक आदि स्वीकार (ग्रहण) करके मैं विचरता हूँ, यही मेरा प्रासुकविहार है। विवेचन—सोमिल ब्राह्मण (माहन ) के द्वारा प्रस्तुत प्रश्नों के भगवान् द्वारा उत्तर–सोमिल ब्राह्मण परीक्षाप्रधान बनकर भगवान् के समीप पहुँचा था। वह यह संकल्प लेकर चला था कि अगर श्रमण ज्ञातपुत्र ने मेरे प्रश्नों के यथार्थ उत्तर दिये तो मैं उन्हें वन्दन-नमस्कार एवं पर्युपासना करूंगा, अन्यथा नहीं। उसका अनुमान था कि मैं जिन गम्भीर अर्थ वाले शब्दों के अर्थ पूडूंगा, श्रमण ज्ञातपुत्र को उनके अर्थों का ज्ञान
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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