SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 775
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४२ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र १२. तए णं ते अन्नउत्थिया भगवं गोयमं एवं वदासि—केणं कारणेणं अज्जो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव भवामो ? [१२] इस पर वे अन्यतीर्थिक भगवान् गौतम से इस प्रकार बोले—आर्य ! किस कारण से हम त्रिविधत्रिविध से यावत एकान्त बाल हैं ? १३. तए णं भगवं गोयमे ते अन्नउत्थिए एवं वयासि—तुब्भे णं अज्जो ! रीयं रीयमाणा पाणे पेच्चेह जाव उवद्दवेह। तए णं तुब्भे पाणे पेच्चेमाणा जाव उवद्दवेमाणा तिविहं जाव एगंतबाला यावि भवह। [१३] तब भगवान् गौतम स्वामी ने उन अन्यतीर्थिकों से इस प्रकार कहा—हे आर्यो! तुम चलते हुए प्राणियों को आक्रान्त करते हो, यावत् पीड़ित करते हो। जीवों को आक्रान्त करते हुए यावत् पीड़ित करते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध से असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो।। १४. तए णं भगवं गोयमे ते अन्नउत्थिए एवं पडिहणइ, प० २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उ० २ समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वं० २ णच्चासन्ने जाव पज्जुवासति। [१४] इस प्रकार गौतम स्वामी ने उन अन्यतीर्थिकों को निरुत्तर कर दिया। तत्पश्चात् गौतम स्वामी श्रमण भगवान् महावीर के समीप पहुँचे और उन्हें वन्दन-नमस्कार करके न तो अत्यन्त दूर और न अतीव निकट यावत् पर्युपासना करने लगे। १५. 'गोयमा!' ई समणे भगवं महीवीरे भगवं गोयमं एवं वयासि—सुठु णं तुमं गोयमा ! ते अन्नउत्थिए एवं वयासि, साहु णं तुमं गोयमा! ते अन्नउत्थिए एवं वयासि, अस्थि णं गोयमा ! ममं बहवे अंतेवासी समणा निग्गंथा छउमत्था जे णं नो पभू एयं वागरणं वागरेत्तए जहा णं तुमं, तं सुठु णं तुम गोयमा ! ते अन्नउत्थिए एवं वयासि, साहु णं तुमं गोयमा ! ते अन्नउत्थिए एवं वदासि। [१५] 'गौतम!' इस नाम से सम्बोधित कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने भगवान् गौतम स्वामी से इस प्रकार कहा- हे गौतम! तुमने उन अन्यतीर्थिकों को अच्छा कहा, तुमने उन अन्यतीर्थिकों को यथार्थ कहा। गौतम ! मेरे बहुत से शिष्य श्रमण निर्ग्रन्थ छद्मस्थ हैं, जो तुम्हारे समान उत्तर देने में समर्थ नहीं है। जैसा कि तुमने उन अन्यतीर्थिकों को ठीक कहा; उन अन्यतीर्थिकों को बहुत ठीक कहा। विवेचन—'कायं च जोयं च रीयं च पडुच्च दिस्स.."वयामो' : तात्पर्य—गौतम स्वामी ने उन अन्यतीर्थिकों के आक्षेप का उत्तर देते हुए कहा कि हम प्राणियों को कुचलते, मारते या पीड़ित करते हुए नहीं चलते, क्योंकि हम ( कायं) शरीर को देख कर चलते हैं, अर्थात्-शरीर स्वस्थ हो, सशक्त हो, चलने में समर्थ हो, तभी चलते हैं, तथा हम नंगे पैर चलते हैं, किसी वाहन का उपयोग नहीं करते, इसलिए किसी भी जीव को कुचलते-दबाते या मारते नहीं। फिर हम योग–अर्थात्-संयमयोग की अपेक्षा से ही गमन करते हैं। ज्ञानदर्शन-चारित्र आदि के प्रयोजन से ही गमन करते हैं, गोचरी आदि जाना हो, ग्रामानुग्राम विहार करना हो, या दया
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy