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अठारहवाँ शतक : उद्देशक-८
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[७] उस काल और उस समय में, श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी (पट्टशिष्य) श्री इन्द्रभूति नामक अनगार यावत्, ऊर्ध्वजानु (दोनों घुटने ऊँचे करके) यावत् तप-संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे।
८. तए णं ते अन्नउत्थिया जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छंति, उवा० २ भगवं गोयमं एवं वयासि तुब्भे णं अजो ! तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतबाला यावि भवह।
[८] एक दिन वे अन्यतीर्थिक, श्री गौतम स्वामी के पास आकर कहने लगे—आर्य! तुम त्रिविध-त्रिविध से (तीन करण और तीन योग से) असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो।
९. तए णं ते गोयमे अन्नउत्थिए एवं वयासि—केणं कारणेणं अज्जो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतबाला यावि भवामो ?
[९] इस पर भगवान् गौतम स्वामी ने उन (आक्षेपकर्ता) अन्यतीर्थिकों से इस प्रकार कहा—'हे आर्यो! किस कारण से हम तीन करण तीन योग से असंयत, अविरत, यावत् एकान्तबाल हैं ?'
१०. तए णं ते अन्नउत्थिया भगवं गोयम एवं वदासी—तुब्भे णं अज्जो ! रीयं रीयमाणा पाणे पेच्चेह अभिहणह जाव उवद्दवेह। तए णं तुब्भे पाणे पेच्चेमाणा जाव उवद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव एतबाला यावि भवह।
[१०] तब वे अन्यतीर्थिक, भगवान् गौतम से इस प्रकार कहने लगे हे आर्य ! तुम गमन करते हुए जीवों को आक्रान्त करते (दबाते) हो, मार देते हो, यावत्-उपद्रवित (भयाक्रान्त) कर देते हो। इसलिए प्राणियों को आक्रान्त यावत् उपद्रुत करते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत, यावत् एकान्तबाल हो।
११. तए णं भगवं गोयमे ते अन्नउत्थिए एवं वदासिनो खलु अजो ! अम्हे रीयं रीयमाणा पाणे पेच्चेमों जाव उवद्दवेमो, अम्हे णं अजो रीयं रीयमाणा कायं च जोयं च रीयं च पडुच्च दिस्स दिस्स पदिस्स पदिस्स वयामो। तए णं अम्हे दिस्स दिस्स वयमाणा पदिस्स पदिस्स वयमाणा णो पाणे पेच्चेमो जाव णो उवद्दवेमो। तए णं अम्हे पाणे अपच्चेमाणा जाव अणोद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव एगंतपंडिया यावि भवामो। तुब्भे णं अजो! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यावि भवह।
[११] यह सुनकर भगवान् गौतम स्वामी ने उन अन्यतीर्थिकों से इस प्रकार कहा—आर्यो! हम गमन करते हुए न तो प्राणियों को कुचलते हैं, न मारते हैं और न भयाक्रान्त करते हैं, क्योंकि आर्यो ! हम गमन करते समय काया (शरीर की शक्ति को), योग को (संयम व्यापार को) और धीमी-धीमी गति को ध्यान में रख कर देख-भाल कर विशेष रूप से निरीक्षण करके चलते हैं। अत: हम देख-देख कर एवं विशेष रूप से निरीक्षण करते हुए चलते हैं, इसलिए हम प्राणियों को न तो दबाते-कुचलते हैं, यावत् न उपद्रवित करते (पीडा पहुँचाते) हैं। इस प्रकार प्राणियों को आक्रान्त न करते हुए, यावत् पीड़ित न करते हुए हम तीन करण और तीन योग से यावत् एकान्त पण्डित हैं । हे आर्यो ! तुम स्वयं ही त्रिविध-त्रिविध से असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो।