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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
विवेचन—भावितात्मा अनगार को साम्परायिक क्रिया क्यों नहीं लगती ?—जिस भावितात्मा अनगार के क्रोधादि कषाय नष्ट हो गये हैं, उसके पैर के नीचे आकर यदि कोई जन्तु अकस्मात् मर जाता है तो उसे ईर्यापथिकी क्रिया ही लगती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं, क्योंकि साम्परायिकी क्रिया सकषायी जीवों को लगती है, अकषायी को नहीं । जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में कहा है—'सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः'।'
पुरओ दुहओ : विशेषार्थ : पुरओ-आगे-सामने, दुहओ—पीठ पीछे और दोनों पार्श्व (अगलबगल) में। भगवान् का जनपद-विहार, राजगृह में पदार्पण और गुणशील चैत्य में निवास
३. तए णं समणे भगवं महावीरे बहिया जाव विहरइ। [३] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी बाहर के जनपद में यावत् विहार कर गए। ४. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पुढविसिलावट्टए।
[४] उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर में (गुणशीलक नामक चैत्य था) यावत् पृथ्वीशिलापट्ट था।
५. तस्स णं गुणसिलस्स चेतियस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति। [५] उस गुणशीलक उद्यान के समीप बहुत से अन्यतीर्थिक निवास करते थे। ६. तए णं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे जाव परिसा पडिगया।
[६] उन दिनों में (एक बार) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहाँ पधारे, यावत् परिषद् (धर्मोपदेश श्रवण कर, वन्दना करके) वापिस लौट गई।
विवेचन—भगवान् का मुख्य रूप से विचरणक्षेत्र, निवासस्थान और पट्ट आदि-भगवान् का मुख्यतया विचरणक्षेत्र उन दिनों राजगृह नगर था। भगवान् वहाँ गुणशीलक उद्यान में निवास करते थे और मुख्यरूप से पृथ्वीशिला के बने हुए पट्ट पर विराजते थे। देवों द्वारा समवसरण की रचना की जाती थी। भगवान् समवसरण में विराज कर धर्मोपदेश देते थे। अन्यतीर्थिकों द्वारा श्रमणनिर्ग्रन्थों पर हिंसापरायणता, असंयतता एवं एकान्तबालत्व के आक्षेप का गौतम स्वामी द्वारा समाधान, भगवान् द्वारा उक्त यथार्थ उत्तर की प्रशंसा
७. तेणं कालेणं तेणं समाएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूती नामं अणगारे जाव उड्ढंजाणू जाव विहरइ।
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७५४
(ख) भगवती. विवेचन भा. ६ (पं. घेवरचन्दजी) पृ. २७३६-२७३७