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अठारहवाँ शतक : उद्देशक - ७
कठिन शब्दार्थ — महासोक्खे —– महान् सौख्यसम्पन्न | बोंदी – शरीर । एगजीवफुडाओ – एक ही जीव से स्पृष्ट-सम्बद्ध | बोंदीणं अंतरा - विकुर्वित शरीरों के बीच का अन्तराल ।
उन छिन्नशरीरों के अन्तर्गतभाग को शस्त्रादि द्वारा पीडित करने की असमर्थता
४१. पुरिसे णं भंते ! अंतरे हत्थेण वा ?
एवं जहा अट्टमस ततिए उद्देसए ( स. ८ उ. ३ सु. ६ ( २ ) ) जाव नो खलु तत्थ सत्यं कमति ।
[ ४१ प्र.] भगवन् ! कोई पुरुष, उन वैक्रियकृत शरीरों के अन्तरालों को अपने हाथ या पैर से स्पर्श करता हुआ, यावत् तीक्ष्ण शस्त्र से छेदन करता हुआ कुछ भी पीड़ा उत्पन्न कर सकता है ?
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[४१ उ.] गौतम! (इसका उत्तर) आठवें शतक के तृतीय उद्देशक (सू. ६-२ में कथित कथन) के अनुसार समझना, यावत् — उन पर शस्त्र नहीं लग (चल) सकता ।
विवेचन — वैक्रियकृतशरीरों के छेदने - भेदनादि द्वारा पीडा पहुंचाने की असमर्थता — प्रस्तुत सू. ४१ में पूर्वोक्त शरीरों के अन्तराल पर हाथ-पैर आदि या शस्त्रादि द्वारा पीडा पहुंचाने के सामर्थ्य का अष्टम शतक ' के तृतीय उद्देशक के अतिदेशपूर्वक निषेध किया गया है।
देवासुर संग्राम में प्रहरण- विकुर्वणा - निरूपण
४२. अत्थि णं भंते ! देवासुराणं संगामो, देवासुराणं संगामो ?
हंता, अत्थि ।
[ ४२ प्र.] भगवन्! क्या देवों और असुरों में (कभी) देवासुर संग्राम होता है ?
[४२ उ. ] हाँ गौतम! होता है।
४३. देवासुरेसु णं भंते ! संगामेसु वट्टमाणेसु किं णं तेसिं देवाणं पहरणरयणत्ताए परिणति ? गोयमा ! जं णं ते देवा तणं वा कट्टं वा पत्तं वा सक्करं वा परामुसंति तं णं तेंसि देवाणं पहरणरयणत्ताए परिणमति ।
[४३ प्र.] भगवन्! देवों और असुरों में संग्राम छिड़ जाने ( प्रवृत्त हो जाने ) पर कौन-सी वस्तु, उन देवों के श्रेष्ठ प्रहरण ( शस्त्र) के रूप में परिणत होती है ?
[४३ उ. ] गौतम! वे देव, जिस तृण (तिनका ), काष्ठ, पत्ता या कंकर आदि को स्पर्श करते हैं, वही वस्तु उन देवों के शस्त्ररत्न के रूप में परिणत हो जाती है ।
४४. जहेव देवाणं तहेव असुरकुमाराणं ?
१. भगवती (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भाग. १३, पृ. १३५