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अठारहवाँ शतक : उद्देशक-७
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३६. तए णं मदुए समणोवासए समणस्स भगवओ जाव निसम्म हट्टतुटू० पसिणाई पुच्छति, प. पु. २ अट्ठाइं परियाइयति, अ० प० २ उठाए उठेति, उ० २ समणं भगवं महावीरं वंदति नमसइ जाव पडिगए।
[३६] तत्पश्चात् मद्रुक श्रमणोपासक ने श्रमण भगवान् महावीर से यावत् धर्मोपदेश सुना, और उसे अवधारण करके अतीव हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ। फिर उसने भगवान् से प्रश्न पूछे, अर्थ जाने (ग्रहण किये), और खड़े होकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया यावत् अपने घर लौट गया।
विवेचनभगवान् द्वारा मद्रुक की प्रशंसा एवं नवसिद्धान्त निरूपण-भगवान् ने मद्रुक द्वारा अन्यतीर्थिकों को दिए गए युक्तिसंगत उत्तर के लिए मद्रुक की प्रशंसा की, उसके प्रशंसनीय और धर्मप्रभावक कार्य को प्रोत्साहन दिया, साथ ही एक अभिनव सिद्धान्त का भी प्रतिपादन कर दिया कि जो व्यक्ति बिना जानेसुने-देखे ही किसी अविज्ञात-अश्रुत-असम्मत अर्थ, हेतु और प्रश्न का उत्तर बहुजन समूह में देता है, वह अर्हन्तों, केवलियों तथा अर्हन्प्ररूपित धर्म की आशातना करता है। इसका आशय यह है कि बिना जाने-सुने मनमाना उत्तर दे देने से कई बार धर्मसंघ एवं संघनायक के प्रति लोगों में गलत धारणाएँ हो जाती हैं। वृत्तिकार इस कथन का रहस्य इस प्रकार बताते हैं कि भगवान् ने कहा—हे मद्रुक ! तुमने अच्छा किया कि अस्तिकाय को प्रत्यक्षं न जानते हुए, 'नहीं जानते', ऐसा सत्य-सत्य कहा। यदि तुमने नहीं जानते हुए भी, 'हम जानते हैं', ऐसा कहा होता तो अर्हन्त आदि के तुम आशातनाकर्ता हो जाते।'
कठिन शब्दार्थ-अण्णातं—अज्ञात । अदिटुं—नहीं देखे हुए। अस्सुतं—नहीं सुने हुए। अमयं असम्मत-अमान्य। अविण्णायं-अविज्ञात। आसायणाए वट्टति—आशातना करने में प्रवृत्त होता हैआशातना करता है। अट्ठाइं परियाइयति—अर्थों को ग्रहण करता है। गौतम द्वारा पूछे गए मद्रुक की प्रव्रज्या एवं मुक्ति से सम्बद्ध प्रश्न का भगवान् द्वारा समाधान
३७. 'भंते!' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वं० २ एवं वयासि—पभूणं भंते! मदुए समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं जाव पव्वइत्तए ?
णो तिणढे समठे। एवं जहेव संखे ( स. १२ उ. १ सु. ३१) तहेव अरूणाभे जाव अंतं काहिति।
[३७] 'भगवन् !' इस प्रकार सम्बोधित कर, भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दननमस्कार किया और फिर इस प्रकार पूछा-भगवन् ! क्या मद्रुक श्रमणोपासक आप देवानुप्रिय के पास मुण्डित होकर यावत् प्रव्रज्या ग्रहण करने में समर्थ है ?
[३७] हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इत्यादि सब वर्णन (शतक १२, उ. १ सू. ३१ में वर्णित) शंख
१. (क) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. ६, पृ. २७२६
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७५३ ।। २. भगवतीस्त्र (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. १३, पृ. १२७-१३१