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________________ ७३० पर से (अनुमान प्रमाण से ) उनके अस्तित्व को मानना और जानना चाहिए । इस प्रकार उन अन्यतीर्थियों को हतप्रभ एवं निरुत्तर कर दिया । व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कठिन शब्दार्थ - घाणसहगया —— घ्राणसहगत -- गन्धयुक्त । पडिहाइ—— प्रतिहत —— निरुत्तर । मद्रुक द्वारा अन्यतीर्थिकों को दिए गए युक्तिसंगत उत्तर की भगवान् द्वारा प्रशंसा, मद्रुक द्वारा धर्मश्रवण करके प्रतिगमन ३३. 'मदुया !' इ समणे भगवं महावीरे मदुयं एवं समणोवासयं एवं वयासि—सुट्ठ णं मदुया ! तुमं ते अन्नउत्थिए एवं वयासि, साहु णं मद्दुया ! तुमं ते अन्नउत्थिए एवं वयासि, जे जं मदुया! अट्ठ वा हेउं वा पसिणं वा वागरणं वा अण्णातं अदिट्ठं अस्तुतं अमयं अविण्णायं बहुजनणमज्झे आघवेति पण्णवेति जाव उवदंसेति से णं अरहंताणं आसायणाए वट्टति, अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स आसायणाए वट्टति, केवलीणं आसायणाए वट्टति, केवलिपन्नत्तस्स धम्मस्स आसायणाए ति । तं सुट्ठ मं मदुया ! ते अन्नउत्थिए एवं वयासि, साहु णं तुमं मद्दुया ! जाव एवं वयासि । [३३] 'हे मद्रुक !' इस प्रकार सम्बोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने मद्रुक श्रमणोपासक से इस प्रकार कहा— हे मद्रुक ! तुमने उन अन्यतीर्थिकों को जो उत्तर दिया, वह समीचीन है, मद्रुक ! तुमने उन अन्यथीर्थिकों को यथार्थ उत्तर दिया है। हे मद्रुक ! जो व्यक्ति बिना जाने, बिना देखे तथा बिना सुने किसी (अमुक) अज्ञात, अदृष्ट, असम्मत एवं अविज्ञात अर्थ, हेतु, प्रश्न या विवेचन ( व्याकरण - व्याख्या) का उत्तर बहुत-से मनुष्यों के बीच में कहता है, बतलाता है यावत् उपदेश देता है, वह अरहन्त भगवन्तों की आशातना में प्रवृत्त होता है, वह अर्हत्प्रज्ञप्त धर्म की आशातना करता है, वह केवलियों की आशातना करता है, वह केवलि - प्ररूपित धर्म की भी आशातना करता है। हे मद्रुक ! तुमने उन अन्यतीर्थिकों को इस प्रकार का उत्तर देकर बहुत अच्छा कार्य किया है। मद्रुक ! तुमने बहुत उत्तम कार्य किया, यावत् इस प्रकार का उत्तर दिया ( और अन्यतीर्थिकों को निरुत्तर कर दिया) । ३४. तए णं मदुए समणोवासए समणेणं भगवया महावीरेण एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट्ठ समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति, वं० २ णच्चासन्ने जाव पज्जुवासति । [३४] श्रमण भगवान् महावीर के इस कथन को सुनकर हृष्ट-तुष्ट यावत् मद्रुक श्रमणोपासक ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार किया और न अतिनिकट और न अतिदूर बैठकर यावत् पर्युपासना करने लगा । ३५. तए णं संमणे भगवं महावीरे मदुयस्स समणोवासगस्स तीसे य जाव परिसा पडिगया। [३५] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर ने मद्रुक श्रमणोपासक तथा उस परिषद् को धर्मकथा कही । यावत् परिषद् लौट गई। १. भगवती विवेचन, भाग ६ ( पं. घेवरचन्दजी), पृ. २७२७ २. वही भाग ६, पृ. २७२३
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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