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अठारहवाँ शतक : उद्देशक-७
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उप्पकडा, इमं च णं मदुए समणोवासए अहं अदूरसामंतेणं वीयीवयइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं मदुयं समणोवासयं एयमढं पुच्छित्तएत्ति कटु अन्नमन्नस्स अंतियं एयमढें पडिसुणेति अन्नमन्नस्स. प० २ जेणेव मदुए समणोवासए तेणेव उवागच्छंति, उवा० २ मदुयं समणोवासयं एवं वदासी—एवं खलु मदुया ! तव धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे णायपुत्ते पंच अस्थिकाये पन्नवेइ जहा सत्तमे सते अन्नउत्थिउद्देसए ( स.७ उ. १० सु. ६ [१] जाव से कहमेयं मया ! एवं ?
[२९] तभी उन अन्यतीर्थिकों ने मद्रुक श्रमणोपासक को अपने निकट से जाते हुए देखा। उसे देखते ही उन्होंने एक दूसरे को बुला कर इस प्रकार कहा—देवानुप्रियो ! यह मद्रुक श्रमणोपासक हमारे निकट से होकर जा रहा है। हमें यह बात (पंचास्तिकायसम्बन्धी तत्त्व) अविदित है, अत: देवानुप्रियो! इस बात को मद्रुक श्रमणोपासक से पूछना हमारे लिए श्रयेस्कर है। ऐसा विचार कर वे परस्पर सहमत हुए और सभी एकमत होकर मद्रक श्रमणोपासक के निकट आए। फिर उन्होंने मद्रक श्रमणोपासक से इस प्रकार पछा—हे मद्रक ! बात ऐसी है कि तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र पांच अस्तिकायों की प्ररूपणा करते हैं, इत्यादि सारा कथन सातवें शतक के अन्यतीर्थिक उद्देशक (उ. १० सू.६-१) के समान समझना, यावत्- 'हे मद्रुक ! यह बात कैसे मानी जाए ?'
- ३०. तए णं से मदुए समणोवासए ते अन्नउत्थिए एवं वयासि–जति कजं कज्जति जाणामो पासामो; अह कजं न कज्जति न जाणामो न पासामो।
. [३०] यह सुनकर मद्रुक श्रमणोपासक ने उन अन्यतीर्थिकों से इस प्रकार कहा -यदि वे धर्मास्तिकायादि कार्य करते हैं तभी उस पर से हम उन्हें जानते-देखते हैं, यदि वे कार्य न करते तो कारणरूप में हम उन्हें नहीं जानते-देखते।
३१. तए णं ते अन्नउत्थिया मदुयं समणोवासयं एवं वयासी–केस णं तुमं मदुया ! समणोवासगाणं भवसि जेण तुमं एयमढें न जाणसि न पाससि ?
[३१] इस पर उन अन्यतीर्थिकों ने (आक्षेपपूर्वक) मद्रुक श्रमणोपासक से कहा कि हे मद्रुक ! तू कैसा श्रमणोपासक है कि तू इस तत्त्व (पंचास्तिकाय) को न तो जानता है और न प्रत्यक्ष देखता है (फिर भी मानता है)? .
३२. तए णं मदुए समणोवासए ते अन्नउत्थिए एवं वयासि अत्थि णं आउसो! वाउयाए वाति ?' हंता, अत्थि। तुब्भे णं आउसो ! वाउयायस्स वायमाणस्स रूवं पासह ? णो तिण। अस्थि णं आउसो ! घाणसहगया पोग्गला? हंता, अत्थि। तुब्भे णं आउसो ! घाणसहगयाणं पोग्गलाणं रूवं पासह? णो ति।