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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र राजगृह में भगवत्पदार्पण सुनकर मद्रुकश्रावक का उनके दर्शन-वन्दनार्थ प्रस्थान
२६. तत्थ णं रायगिहे नगरे मदुए नामं समणोवासए परिवसति अड्ढे जाव अपरिभूए अभिगय० जाव विहरइ।
[२६] उस राजगृह नगर में धनाढ्य यावत् किसी से पराभूत न होने वाला, तथा जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता, यावत् मद्रुक नामक श्रमणोपासक रहता था।
२७. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदायि पुव्वाणुपुब् िचरमाणे जाव समोसढे। परिसा जाव पज्जुवासइ।
[२७] तभी अन्यदा किसी दिन पूर्वानुपूर्वीक्रम से विचरण करते हुए श्रमण भगवान् महावीर वहाँ पधारे। वे समवसरण में विराजमान हुए। परिषद यावत् पर्युपासना करने लगी।
२८. तए णं मदुए समणोवासए इमीसे कहाए लद्धढे समाणे हट्ठतुटु० जाव हिदए ण्हाए जाव सरीरे साओ गिहाओ पडिनिक्खमति, सा० प० २ पायविहारचारेण रायगिहं नगरं जाव निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता तेसिं अनउत्थियाणं अदूरसामंतेणं वीतीवयति।
_[२८] मद्रुक श्रमणोपासक ने जब श्रमण भगवान् महावीर के आगमन का यह वृत्तान्त जाना तो वह हृदय में अतीव हर्षित एवं यावत् सन्तुष्ट हुआ। उसने स्नान किया, यावत् समस्त अलंकारों से विभूषित होकर अपने घर से निकला। उसने पैदल चलते हुए राजगृह नगर के मध्य में होकर प्रस्थान किया। चलते-चलते वह उन अन्यतीर्थिकों के निकट से होकर जाने लगा।
विवेचन—मद्रुक श्रमणोपासक और भगवदर्शनार्थ उसकी पदयात्रा–राजगृहनिवासी मद्रुक श्रमणोपासक केवल धनाढ्य ही नहीं, सामाजिक एवं धार्मिकजनों में अग्रणी, प्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित था, जीव, अजीव बन्ध मोक्ष. संवर. निर्जरा आदि तत्त्वों का ज्ञाता था. किसी से दबने वाला नहीं था। भगवान महावीर के प्रति उसकी अनन्य श्रद्धा-भक्ति थी। जब उसने सुना कि भगवान् मेरे नगर में पधारे हैं तो वह हृष्ट-तुष्ट होकर सब प्रकार से सुसज्जित होकर सात्त्विक वेशभूषा में स्वयं पैदल चल कर भगवान् के दर्शनों तथा प्रवचनादि श्रवण के लिए घर से निकला। राजगृह नगर के बीचों-बीच होकर उन अन्यतीर्थिकों के निवास के निकट होकर जाने लगा, जहाँ वे बैठे धर्मचर्चा कर रहे थे। इस पाठ से मद्रुक की धर्मनिष्ठा, तत्त्वज्ञता, सामाजिकता तथा भगवान् के प्रति अनन्यभक्ति परिलक्षित होती है। मद्रुक को भगवदर्शनार्थ जाते देख अन्यतीर्थिकों की उससे पञ्चास्तिकाय सम्बन्धी चर्चा करने की तैयारी, उनके प्रश्न का मद्रुक द्वारा अकाट्य युक्तिपूर्वक उत्तर
२९. तए णं ते अन्नउत्थिया मदुयं समणोवासयं अदूरसामंतेणं वीयीवयमाणं पासंति, पा० २ अन्नमन्नं सद्दावेंति, अन्नमन्नं सद्दावेत्ता एवं वदासि—एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमा कहा अवि
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. २, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. ८१७-८१८ के आधार से