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अठारहवाँ शतक : उद्देशक-७
७२५ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन्! यह इसी प्रकार है', यह कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन दुष्प्रणिधान और सुप्रणिधान : स्वरूप, प्रकार और किन जीवों में कितने-कितने ? -मन-वचन-काया की दुष्प्रवृत्ति की एकाग्रता को दुष्प्रणिधान और सुप्रवृत्ति की एकाग्रता को सुप्रणिधान कहते हैं। दुष्प्रणिधान तो चौवीस ही दण्डकों में पाया जाता है, किन्तु सुप्रणिधान केवल मनुष्य (संयत–साधु) में ही पाया जाता है। अन्यतीर्थकों द्वारा भगवत्प्ररूपित अस्तिकाय के विषय में पारस्परिक जिज्ञासा
२३. तए णं समणे भगवं महावीरे जाव बहिया जणवयविहारं विहरइ। [२३] तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने यावत् बाह्य जनपदों में विहार किया।
२४. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था।वण्णओ।गुणसिलए चेतिए।वण्णओ, जाव पुढविसिलावट्टओ।
[२४] उस काल उस समय राजगृह नामक नगर था। उसका वर्णन करना चाहिए। वहाँ गुणशील नामक उद्यान था। उसका भी वर्णन करना चाहिए। यावत् वहाँ एक पृथ्वीशिलापट्ट था।
२५. तस्स णं गुणसिलस्स चेतियस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति, तं जहाकालोदाई सेलोदाई एवं जहा सत्तमसते अन्नउत्थिउद्देसए ( स. ७ उ. १० सु. १-३) जाव से कहमेयं मन्ने एवं ?
[२५] उस गुणशील उद्यान के समीप बहुत-से अन्यतीर्थिक रहते थे, यथा—कालोदायी, शैलोदायी इत्यादि समग्र वर्णन सातवें शतक के अन्यतीर्थिक उद्देशक के (उ. १० सू. १-३ में कथित) वर्णन के अनुसार, यावत्—'यह कैसे माना जा सकता है ?' यहाँ तक समझना चाहिए।
विवेचन–अन्यतीर्थिकों की भगवत्प्ररूपित अस्तिकायविषयक-जिज्ञासा राजगृह नगर के बाहर गुणशील उद्यान के निकट कालोदायी, शैलोदायी, शैवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अन्यपालक, शैलपालक, शंखपालकं और सेहस्ती नामक अन्यतीर्थिक रहते थे। एक दिन वे सब एकत्र होकर धर्मचर्चा कर रहे थे कि प्रसंगवश भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित अस्तिकाय की चर्चा छिड़ गई। वह इस प्रकार—ज्ञातपुत्र महावीर पंचास्तिकाय की प्ररूपणा करते हैं, यथा-धर्मास्तिकाय आदि। इनमें से जीवास्तिकाय सचेतन है, शेष चार अचेतन हैं। इनमें से पुद्गलास्तिकाय रूपी है, शेष चार अरूपी हैं। ज्ञातपुत्र महावीर के इस मत को कैसे यथार्थ माना जा सकता है? क्योंकि ये अदृश्य होने के कारण असम्भव हैं। आशय यह है कि इस पंचास्तिकाय को सचेतनाचेतनरूप या रूपी-अरूपी-आदिरूप कैसे माना जा सकता है।
१. भगवती. विवेचन, (पं. घेवरचन्दजी) भा. ६. पृ. २७२० २. (क) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. ६, पृ. २७२६
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७५२