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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
अस्थि णं आउसो ! अरणिसहगते अगणिकाए ? हंता, अत्थि। तुब्भे णं आउसो ! अरणिसहगयस्स अगणिकायस्स रूवं पासह ? णो ति। . अस्थि णं आउसो ! समुद्दस्स पारगयाई रूवाइं ? हंता, अत्थि। तुब्भे णं आउसो ! समुद्दस्स पारगयाइं रूवाइं पासह ? णो ति। अस्थि णं आउसो ! देवलोगगयाई रूवाइं ? हंता, अत्थि। तुब्भे णं आउसो ! देवलोगगयाई रूवाइं पासह ? णो ति।
एवामेव आउसो ! अहं वा तुब्भे वा अन्नो वा छउमत्थो जइ जो जं न जाणति न पासति तं सव्वं न भवति एवं भे सुबहुलोए ण भविस्सतीति, कटु ते अन्नउत्थिए एवं पडिहणइ, एवं प० २ जेणेव गुणसिलए चेतिए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उ० २ समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं जाव पज्जुवासति।
[३२] तभी (इस आक्षेप का उत्तर देते हुए) मद्रुक श्रमणोपासक ने उन अन्यतीर्थिकों से इस प्रकार
कहा
[प्र.] आयुष्मन् ! यह ठीक है न कि हवा बहती (चलती) है ? [उ] हाँ, यह ठीक है। [प्र.] हे आयुष्मन् ! क्या तुम बहती (चलती) हुई हवा का रूप देखते हो? [उ.] यह (वायु का रूप देखना) अर्थ शक्य नहीं है। [प्र.] आयुष्मन् ! नासिका के सहगत गन्ध के पुद्गल हैं न ? [उ.] हाँ, हैं। [प्र.] आयुष्मन् ! क्या तुमने उन घ्राण सहगत गन्ध के पुद्गलों का रूप देखा है ? [उ.] यह बात (गन्ध का रूप देखना) भी शक्य नहीं है। [प्र.] आयुष्मन् ! क्या अरणि की लकड़ी के साथ में रहा हुआ अग्निकाय है ?