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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
चौवीस दण्डकवर्ती जीव ग्रहण करते हैं।'
आणत्तं णाणत्तं : आशय—आणत्तं—अन्यत्व—दो अनगारों सम्बन्धी पुद्गलों की पारस्परिक भिन्नता-पृथक्ता। णाणत्तं—नानात्व-वर्णादिकृत विविधता। बन्ध के मुख्य दो भेदों के भेद-प्रभेदों का तथा चौवीस दण्डकों एवं ज्ञानावरणीयादि अष्टविध कर्म की अपेक्षा भावबन्ध के प्रकार का निरूपण
१०. कतिविधे णं भंते बंधे पन्नतें ? . मागंदियपुत्ता! दुविहे बंधे पन्नत्ते, तं जहा—दव्वबंधे य भावबंधे य। [१० प्र.] भगवन् ! बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [१० उ.] माकन्दिकपुत्र! बन्ध दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार है-द्रव्यबन्ध और भावबन्ध। ११. दव्वबंधे णं भंते! कतिविधे पन्नत्ते ? मागंदियपुत्ता ! दुविधे पन्नत्ते, तं जहा—पयोगबंधे य वीससाबंधे य। [११ प्र.] भगवन् ! द्रव्यबन्ध कितने प्रकार का गया है ? [११ उ.] माकन्दिकपुत्र! वह दो प्रकार का कहा गया है, यथा प्रयोगबन्ध और विस्रसाबन्ध । १२. वीससाबंधे णं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते? मागंदियपुत्ता! दुविधे पन्नत्ते, तं जहा—सादीयवीससाबंधे य अणादीयवीससाबंधे य। [१२ प्र.] भगवन् ! विस्रसाबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ?
[१२ उ.] मा ! वह भी दो प्रकार का कहा गया है, यथा-सादि विस्त्रसाबन्ध और अनादि विस्रसाबन्ध।
१३. पयोगबंधे णं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते ? मागंदियपुत्ता! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा—सिढिलबंधणबंधे य घणियबंधणबंधे य। [१३ प्र.] भगवन् ! प्रयोगबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ?
[१३ उ.] माकन्दिकपुत्र! वह भी दो प्रकार का कहा गया है, यथा—शिथिलबन्धनबन्ध और गाढ (घन) बन्धनबन्ध।
१. (क) भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्र ७४२
(ख) सरीरेणोयाहारो, तया या फासेण लोम आहारो। पक्खेवाहारो पुण कावलिओ होइ नायव्वो॥ २. भगवती, अ. वृत्ति, पत्र ७४२