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________________ अठारहवाँ शतक : उद्देशक-३ ६९५ [९-६ प्र.] भगवन् ! वैमानिकदेव उन निर्जरापुद्गलों को जानते-देखते और उनका आहरण करते हैं या नहीं करते हैं ? _ [९-६ उ.] गौतम! मनुष्यों के समान समझना चाहिए। विशेष यह है कि वैमानिक देव दो प्रकार के हैं। यथा—मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक। उनमें से जो मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक हैं, वे नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं, तथा उनमें से जो अमायी-सम्यग्दृष्टि उपपन्नक हैं, वे भी दो प्रकार के हैं, यथा—अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक। जो अनन्तरोपपन्नक होते हैं, वे नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं तथा जो परम्परोपपन्नक हैं, वे दो प्रकार के हैं, यथा—पर्याप्तक और अपर्याप्त । उनमें जो अपर्याप्तक हैं, वे उन पुद्गलों को नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं। उनमें जो पर्याप्तक हैं, वे दो प्रकार के हैं, यथा उपयोगयुक्त और उपयोगरहित । उनमें से जो उपयोगरहित हैं, वे नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं। [तथा जो उपयोगयुक्त हैं, वे जानते-देखते और ग्रहण करते हैं।] विवेचन-निर्जरापुद्गलों के जानने-देखने और आहरण करने के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर—प्रस्तुत सूत्र का फलितार्थ यह है कि केवली तो उक्त सूक्ष्म निर्जरापुद्गलों को, जो कि समग्रलोक को व्याप्त करके रहते हैं, जानते हैं, देखते हैं, इसलिए उनके विषय में यहाँ प्रश्न नहीं पूछा गया है। प्रश्न पूछा गया है— छद्मस्थ के जानने आदि के विषय में। जिसके लिए प्रज्ञापनासूत्र के पन्द्रहवें पद के प्रथम इन्द्रिय-उद्देशक का अतिदेश किया गया है। फलितार्थ-छद्मस्थों में भी जो विशिष्ट अवधिज्ञानादि-उपयोगयुक्त हैं, वे ही सूक्ष्म कार्मण (निर्जेस). पुद्गलों को जानते-देखते हैं, परन्तु जो विशिष्ट अवधिज्ञानादि के उपयोग से रहित हैं वे नहीं जानते-देखते । यही कारण है कि नैरयिक से लेकर दश भवनपति, पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय और तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय तक के जीव तथा वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्क देव विशिष्ट अवधिज्ञानादि उपयोगयुक्त न होने से उक्त सूक्ष्म कार्मण (निर्जरा) पुद्गलों को जान-देख नहीं सकते। मनुष्यसूत्र में-असंज्ञीभूत एवं अनुपयुक्त मनुष्य सूक्ष्म कार्मण पुद्गलों को जान-देख नहीं सकते किन्तु जो मनुष्य संज्ञीभूत हैं, अर्थात् विशिष्ट अवधिज्ञानी हैं, तथा जो उपयोगयुक्त हैं, वे उन निर्जरा-पुद्गलों को जानदेख सकते हैं। वैमानिकसूत्र में जो वैमानिक देव अमायी-सम्यग्दृष्टि हैं, परम्परोपपन्नक हैं, पर्याप्तक हैं तथा जो विशिष्ट अवधिज्ञानी उपयोगयुक्त हैं, वे ही उन सूक्ष्म कार्मण पुद्गलों को जान-देख सकते हैं। जो मायीमिथ्यादृष्टि हैं, वे विपरीतद्रष्टा होने से उन पुद्गलों को जान-देख नहीं सकते। आहाररूप से ग्रहण—आहार तीन प्रकार के हैं—ओज-आहार, लोम-आहार और प्रक्षेप-आहार। त्वचा के स्पर्श से लोम-आहार होता है, और मुख में डालने से प्रक्षेप-आहार होता है, किन्तु कार्मणशरीर द्वारा पुद्गलों का ग्रहण करना ओज-आहार कहलाता है। यहाँ ओज-आहार का ग्रहण समझना चाहिए, जिसे
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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