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________________ तइओ उद्देसओ : 'मायंदिए' तृतीय उद्देशक : माकन्दिक माकन्दीपुत्र द्वारा पूछे गए कापोतलेश्यी पृथ्वी-अप्-वनस्पतिकायिकों को मनुष्य भवानन्तर सिद्धिगतिसम्बन्धी प्रश्न के भगवान् द्वारा उत्तर-माकन्दीपुत्र द्वारा तथ्य प्रकाशन पर संदिग्ध श्रमणनिर्ग्रन्थों का भगवान् द्वारा समाधान, उनके द्वारा क्षमापना १. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था।वण्णओ। गुणसिलए चेतिए। वण्णओ। जाव परिसा पडिगया। [१] उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर था। उसका वर्णन करना चाहिए। वहाँ गुणशील नामक चैत्य (उद्यान) था। उसका भी वर्णन करना चाहिए। यावत् परिषद् वन्दना करके वापिस लौट गई। २. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स जाव अंतेवासी मांगदियपुत्ते नाम अणगारे पगतिभद्दए जहा मंडियपुत्ते (स. ३ उ. ३ सु. १) जाव' पन्जुवासमाणे एवं वयासी–से नूणं भंते ! काउलेस्स पुढविकाइएट्टकाउलेस्सेहिंतो पुढविकाइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता माणुस्सं विग्गहं लभति, मा० ल० २ केवलं बोहिं बुज्झइ, केव० बु० २ तओ पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेति? हंता, मागंदियपुत्ता! काउलेस्से पुढविकाइए जाव अंतं करेति। [२ प्र.] उस काल एवं उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी यावत् प्रकृतिभद्र माकन्दिकपुत्र नामक अनगार ने, (शतक ३, उद्देशक १ सू. १ में वर्णित) मण्डितपुत्र अनगार के समान यावत् पर्युपासना करते हुए (श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से) इस प्रकार पूछा-भगवन् ! क्या कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिकजीव, कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिकजीवों में से मरकर अन्तररहित (सीधा) मनुष्य शरीर प्राप्त करता है? फिर (उस मनुष्यभव में ही) केवलज्ञान उपार्जित करता है ? तत्पश्चात् सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है? [२ उ.] हाँ, माकन्दिकपुत्र! वह कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक जीव यावत् सब दु:खों का अन्त करता है। ३. से नूणं भंते ! काउलेस्से आउकाइए, काउलेस्सेहितो आउकाइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता माणुस्सं विग्गहं लभति, माणुस्सं विग्गहं लभित्ता केवलं बोहिं बुज्झति जाव अंतं करेति ? हंता, मागंदियपुत्ता! जाव अंतं करेति। [३ प्र.] भगवन् ! क्या कापोतलेश्यी अप्कायिकजीव कापोतलेश्यी अप्कायिकजीवों में से मर कर अन्तररहित १. 'जाव' पद सृचित पाट—'पगइ-उवसंते, पगइपयणुकीह-माण-माया-लोभे इत्यादि।' २. जाव पद-सूचक पाठ-बुज्झति, मुच्चति सव्वदुक्खाणं........ ।
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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