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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
मनुष्यशरीर प्राप्त करता है ? फिर केवलज्ञान प्राप्त करके यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ? [३ उ.] हाँ, माकन्दिकपुत्र ! वह यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ।
४. से नूणं भंते ! काउलेस्से वणस्सइकाइए० ?
एवं चेव जाव अंतं करेति ।
[४ प्र] भगवन्! कापोतलेश्यी वनस्पतिकायिकजीव के सम्बन्ध में भी वही प्रश्न है ?
[४ उ.] हाँ, माकन्दिकपुत्र ! वह भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ।
५. ‘सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति मागंदियपुत्ते अणगारे समणं भगवं महावीरं जाव नमसित्ता जेव समणे निग्गंथे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० २ समणे निग्गंथे एवं वदासी— 'एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से पुढविकाइए तहेव जाव अंतं करेति । एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से आउक्काइए जाव अंतं करेति । एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से वणस्सतिकाइए जाव अंतं करेति । '
[५] 'हे भगवन्! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' यों कहकर माकन्दिकपुत्र अनगार श्रमण भगवान् महावीर को यावत् वन्दन - नमस्कार करके जहाँ श्रमण निर्ग्रन्थ थे, वहाँ उनके पास आए और उनसे इस प्रकार कहने लगे—आर्यो ! कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक जीव पूर्वोक्त प्रकार से यावत् सब दुःखों का अन्त करता है, इसी प्रकार हे आर्यो ! कापोतलेश्यी अप्कायिक जीव भी यावत् सब दुःखों का अन्त करता है, और इसी प्रकार कापोतलेश्यी वनस्पतिकायिक जीव भी, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है। 1
६. तए णं ते समणा निग्गंथा मार्गदियपुत्तस्स अणगारस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स एयमट्ठं नो सद्दहंति ३, एयमठ्ठे असद्दहमाणा ३ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, ते० उ० २ समणं भगवं महावीरं वंदंति नमंसंति, वं० २ एवं वयासी — एवं खलु भंते ! मागंदियपुत्ते अणगारे अम्हं एवमाइक्खड़ जाव परूवेइ — एवं खलु अज्जो !' काउलेस्से पुढविकाइए जाव अंतं करेति, एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से आउकाइए जाव अंतं करेति, एवं वणस्सतिकाइए वि जाव अंतं करेति । से कहमेयं भंते !' ' एवं ? अज्जो !' त्ति समणे भगवं महावीरे ते समणे निग्गंथे आमंतित्ता एवं वयासी—जं णं अज्जो ! मागंदियपुत्ते अणगारे तुब्भे एवमाइक्खड़ जाव परूवेइ एवं खल्लु अज्जो ! काउलेस्से पुढविकाइए जाव अंतं करेति, एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से आउकाइए जाव अंतं करेति, एवं खलु वणस्सइकातिए वि जाव अंतं करेति, सच्चे णं एसमट्ठे अहं पि णं अज्जो ! एवमाइक्खामि ४ एवं खलु अज्जो ! कण्हलेस्से पुढविकाइए कण्हलेस्सेहिंतो पुढविकाइएहिंतो जाव अंतं करेति, एवं खलु अज्जो ! नीललेस्से पुढविकाइए जाव अंतं करेति, एवं काउलेस्से वि, जहा पुढविकाइए एवं आउकाइए वि, एवं वणस्सतिकाइए वि, सच्चे णं एसमट्ठे ।
[६] तदनन्तर उन श्रमण निर्ग्रन्थों ने माकन्दिकपुत्र अनगार की इस प्रकार की प्ररूपणा, व्याख्या यावत् मान्यता पर श्रद्धा नहीं की, न ही उसे मान्य किया ।