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अठारहवाँ शतक : उद्देशक-२
६८५ देवानुप्रियो ! तुम सब क्या करोगे? क्या प्रवृत्ति करने का विचार है? तुम्हारे हृदय में क्या इष्ट है? और तुम्हारी क्या करने की क्षमता (शक्ति) है? ... यह सुन कर उन एक हजार आठ व्यापारी मित्रों ने कार्तिक सेठ से इस प्रकार कहा—यदि आप संसारभय से उद्विग्न (विरक्त) होकर गृहत्याग कर यावत् प्रव्रजित होंगे, तो फिर, देवानुप्रिय ! हमारे लिए (आपके सिवाय) दूसरा कौन-सा आलम्बन है? या कौन-सा आधार है? अथवा (यहाँ) कौन-सी प्रतिबद्धता रह जाती है? अतएव, हे देवानुप्रिय ! हम भी संसार के भय से उद्विग्न हैं, तथा जन्ममरण के चक्र से भयभीत हो चुके हैं। हम भी आप देवानुप्रिय के साथ अगारवास का त्याग कर अर्हन्त मुनिसुव्रतस्वामी के पास मुण्डित होकर अनगारदीक्षा ग्रहण करेंगे।
व्यापारी-मित्रों का अभिमत जान कर कार्तिक श्रेष्ठी ने उन १००८ व्यापारी-मित्रों से इस प्रकार कहा'यदि तुम सब देवानुप्रिय संसारभय से उद्विग्न और जन्ममरण से भयभीत होकर मेरे साथ भगवान् मुनिसुव्रतस्वामी के समीप प्रव्रजित होना चाहते हो तो अपने-अपने घर जाओ, (प्रचुर अशनादि चतुर्विध आहार तैयार कराओ, फिर अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन आदि को बुलाओ, यावत् उनके समक्ष अपने) ज्येष्ठपुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप दो। [फिर उन मित्र-ज्ञातिजन यावत् ज्येष्ठपुत्र को इस विषय में पूछ लो] तब एक हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिविका में बैठकर [और मार्ग में मित्रादि एवं ज्येष्ठपुत्र द्वारा अनुगमन किये जाते हुए, समस्त ऋद्धि से युक्त यावत् वाद्यों के घोषपूर्वक] कालक्षेप (विलम्ब) किये बिना मेरे पास आओ।'
तदनन्तर कार्तिक सेठ का यह कथन उन एक हजार आठ व्यापारी-मित्रों ने विनयपूर्वक स्वीकार किया और अपने-अपने घर आए। फिर उन्होंने विपल अशनादि तैयार कराया और अपने मित्र-जातिजन आदि को आमन्त्रित किया। यावत् उन मित्र-ज्ञातिजनादि के समक्ष अपने ज्येष्ठपुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपा। फिर उन मित्र-ज्ञाति-स्वजन यावत् ज्येष्ठपुत्र से (दीक्षाग्रहण करने के विषय में) अनुमति प्राप्त की। फिर हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य (पुरुष-सहस्रवाहिनी) शिविका में बैठे। मार्ग में मित्र ज्ञाति, यावत् परिजनादि एवं ज्येष्ठपुत्र के द्वारा अनुगमन किये जाते हुए यावत् सर्वऋद्धि-सहित, यावत् वाद्यों के निनादपूर्वक अविलम्ब कार्तिक सेठ के समीप उपस्थित हुए।
विवेचन—प्रस्तुत परिच्छेद (सू. ३-३) में कार्तिक सेठ द्वारा व्यापारी मित्रों से परामर्श, उनकी भी दीक्षा ग्रहण करने की मन:स्थिति एवं तत्परता जान कर उन्हें उसकी तैयारी करने के निर्देश तथा व्यापारीगण द्वारा उस प्रकार की तैयारी के साथ उपस्थित होने का वर्णन है।
कठिन शब्दार्थ—उवक्खडावेह—तैयार कराओ। कुडुंबे ठावेह—कुटुम्ब के उत्तरदायी के रूप में स्थापित करो—कुटुम्ब का भार सौंपो। रवेणं-वाद्यों के घोषपूर्वक।अकाल-परिहीणं-अधिक समय नष्ट न करके अर्थात् विलम्ब किये बिना। पाउब्भवह—प्रकट होओ—उपस्थित होओ।' एक हजार आठ व्यापारियों सहित दीक्षाग्रहण तथा संयमसाधना
[३-४] "तए णं से कत्तिए सेट्ठी विपुलं असण ४ जहा गंगदत्तो (स. १६ उ. ५ सु. १६) जाव १. भगवती. सूत्र भाग ६ (पं. घेवरचन्दजी सम्पादित) पृ. २६७०