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________________ ६८४ . सेठ ने आवश्यक समझा । एक हजार आठ व्यापारी - मित्रों से परामर्श, तथा उनकी भी प्रव्रज्या ग्रहण की तैयारी ३. [ ३ ] “तए णं से कत्तिए सेट्ठी जाव पडिनिक्खमइ, प० २ जेणेव हत्थिणापुरे नगरे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवा० २ णेगमट्टसहस्सं सद्दावेइ, स० २ एवं वयासी—' एवं खलु देवाणुप्पिया ! म मुणिसुव्वयस्स अरहओ अंतियं धम्मे निसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुयिते । तए णं अहं देवाणुप्पिया ! संसारभयुव्विग्गे जाव पव्वयामि । तं तुब्भे णं देवाणुप्पिया! किं करेह ? किं ववसह ? के भे हिदइच्छिए ? के भे सामत्थे ?" “तए णं तं णेगमट्ठसहस्सं तं कत्तियं सेट्ठि एवं वदासी—जदि णं देवाणुप्पिया संसारभयुव्विग्गा जाव पव्वइस्संति अम्हं देवाणुप्पिया ! किं अन्ने आलंबणे वा आहारे वा पडिबंधे वा ? अम्हे विणं देवाप्पिया ! संसारभउव्विग्गा भीता जम्मण - मरणाणं देवाणुप्पिएहिं सद्धिं मुणिसुव्वयस्स अरहओ अंतियं मुंडा भवित्ता अगाराओ जाव पव्वयामो । " "तए णं से कत्तिए सेट्ठी तं नेगमट्ठसहस्सं एवं वयासी- 'जदि णं देवाणुप्पिया ! संसारभयुव्विग्गा भीया जम्मण-मरणाणं मए सद्धिं मुणिसुव्वयस्स जाव पव्वयह, तं गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! ससु गिहेसु०' जेट्ठेपुत्ते कुडंबे ठावेह, जेट्टे० ठा० २१ पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरुहह, पुरिस. दुरु० २३ अकालपरिहीणं चेव मम अंतियं पादुब्भवह' ।" व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र "तए णं तं नेगमट्टसहस्सं पि कत्तियस्स सेट्ठिस्स एतमट्ठे विणएणं पडिसुणेति, प० २ जेणेव साईं साइं गिहाई तेणेव उवागच्छइ, उवा० २ विपुलं असण जाव उवक्खडावेति, उ० २ मित्तनाति० जाव तस्सेव मित्तनाति० जाव पुरतो जेट्ठपुत्ते कडुंबे ठावेति, जे० ठा० २ तं मित्तनाति जाव जेट्ठपुत्ते व आपुच्छति, आ० २ पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूहति, प० दुरू० २ मित्तणाति० जाव परिजणेणं तेहिय समणुगम्ममाणमग्गा ( ? ग्गे) सव्विड्डीए जाव रवेणं अकालपरिहीणं चेव कत्तियस्स सेट्ठिस्स अंतियं पाउब्भवति । " [ ३-३] तदनन्तर वह कार्तिक श्रेष्ठी यावत् (उस धर्म-परिषद् से) निकला और वहाँ से हस्तिनापुर नगर में जहाँ अपना घर था वहाँ आया । फिर उसने उन एक हजार आठ व्यापारी मित्रों को बुलाकर इस प्रकार कहा- 'हे देवानुप्रियो ! बात ऐसी है कि मैंने अर्हन्त भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी से धर्म सुना है। वह धर्म मुझे इष्ट, अभीष्ट और रुचिकर लगा। हे देवानुप्रियो ! उस धर्म को सुनने के पश्चात् मैं संसार (जन्ममरणरूप चातुर्गतिक संसार) के भय से उद्विग्न हो गया हूँ और यावत् में तीर्थंकर के पास प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ। तो हे यहाँ कुछ प्रतियों में अधिक पाठ मिलता है— १. ' विपुलं असणं उवक्खडावेह, मित्तनाइ० जाव पुरओ..... ।' 4 २. .. मित्तनाइ जाव जेट्ठपुत्ते आपुच्छह आपु० २....... | ' ३ 4 . मित्तनाइ जाव परिजणेणं जेट्ठपुत्तेहि य समणुगम्ममाणमग्गा सव्विड्ढीए जाव रवेणं...।' *******
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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