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________________ ६८३ अठारहवाँ शतक : उद्देशक - २ सु. १६ ) तहेव जाव समोसढे जाव परिसा पज्जुवासति । 44 'तए णं से कत्तिए सेट्ठी इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे हट्टतुट्ठ० एवं जहा एक्कारसमसते सुदंसणे (स. ११ उ. ११ सु. ४) तहेव निग्गओ जाव पज्जुवासति ।" "तए णं मुणिसुव्वए अरहा कत्तियस्स सेट्ठिस्स धम्मकहा जाव परिसा पडिगता ।" "तए णं से कत्तिए सेट्ठी मुणिसुव्वय० जाव निसम्म हट्टतुट्ठ० उट्ठाए उट्ठेति, उ० २ मुणिसुव्वयं जाव एवं वदासी—- 'एवमेयं भंते! जाव से जहेयं तुब्भे वदह । जं नवरं देवाणुप्पिया ! नेगमट्टसहस्सं आपुच्छामि, जेट्ठपुत्तं च कुडुंबे ठावेमि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतियं पव्वयामि । अहासुहं जाव मा पडिबंधं ।" [३-२] उस काल उस समय धर्म की आदि करने वाले अर्हत् श्री मुनिसुव्रत तीर्थंकर वहाँ ( हस्तिनापुर में) पधारे; यावत् समवसरण लगा। इसका समग्र वर्णन जैसे सोलहवें शतक (के पंचम उद्देशक, सू. १६) में है, उसी प्रकार (यहाँ समझना ;) यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। उसके पश्चात् वह कार्तिक श्रेष्ठी भगवान् के पदार्पण का वृतान्त सुनकर हर्षित और सन्तुष्ट हुआ; इत्यादि । जिस प्रकार ग्यारहवें शतक (उ. ११ के सू. ४) में सुदर्शन - श्रेष्ठी का वन्दनार्थ निर्गमन का वर्णन है, उसी प्रकार वह भी वन्दन के लिए निकला, यावत् पर्युपासना करने लगा। तदनन्तर तीर्थंकर मुनिसुव्रत अर्हत् ने कार्तिक सेठ (तथा उस विशाल परिषद्) को धर्मकथा कही, यावत् परिषद् लौट गई। कार्तिक सेठ, भगवान् मुनिसुव्रतस्वामी से धर्म सुनकर यावत् अवधारण करके अत्यन्त हृष्ट-तुष्ट हुआ, फिर उसने खड़े होकर यावत् सविनय इस प्रकार कहा— 'भगवन् ! जैसा आपने कहा, वैसा ही यावत् है । हे देवानुप्रिय प्रभो ! विशेष यह कहना है, मैं एक हजार आठ व्यापारी मित्रों से पूछूंगा और अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपूंगा और तब मैं आप देवानुप्रिय के पास प्रव्रजित होऊंगा। [ भगवान् — ] देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसा करो, किन्तु (इस कार्य में) विलम्ब मत करो । विवेचन - कार्तिक श्रेष्ठी द्वारा धर्मकथाश्रवण और प्रव्रज्याग्रहण की इच्छा-प्रस्तुत परिच्छेद में कार्तिक सेठ द्वारा मुनिसुव्रत तीर्थंकर के धर्मश्रवण का अतिदेशपूर्वक वर्णन है । उसके मन में भगवान् के निकट दीक्षा ग्रहण करने का विचार हुआ, उसका निरूपण है । | ज्येष्ठ पुत्र व्यापारियों से पूछने का आशय - दीक्षा ग्रहण से पूर्व कार्तिक सेठ अपना कौटुम्बिक भार अपने को सौंपे और कौटुम्बिक जनों से अनुमति ले, यह तो उचित था, किन्तु अपने एक हजार आठ व्यापारिक मित्रों से पूछे, इसके पीछे आशय यह है कि वह इन सभी का अत्यन्त विश्वस्त, प्रामाणिक और आधारभूत व्यक्ति था, चुपचाप दीक्षा ले लेने से सबको आघात और विश्वासघात लगता, इसलिए उनसे पूछना
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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