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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
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मित्तनाति० जाव परिजणेणं जेट्ठपुत्तेणं णेगमट्ठसहस्सेण य समणगम्ममाणमग्गे सव्विड्डीए जाव रखेणं हत्थणापुरं नगरं मज्झमज्झेणं जहा गंगदत्तो ( स. १६ उ. ५ सु. १६) जाव आलित्ते णं भंते ! लोए, पलित्ते णं भंते! लोए, जाव आणुगामियत्ताए भविस्सति, तं इच्छामि णं भंते! णेगमट्ठसहस्सेणं सद्धिं सयमेव पव्वावियं जाव धम्ममाइक्खितं । "
"तए णं मुणिसुव्वए अरहा कत्तियं सेट्ठि णेगमट्ठसुहस्सेणं सद्धिं सयमेव पव्वावेइ जाव धम्ममाइक्खड़ एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं, एवं चिट्ठियव्वं जाव संजमियव्वं ।"
"तए णं से कत्तिए सेट्ठी नेगमट्ठसहस्सेणं सद्धिं मुणिसुव्वयस्स अरहओ इमं एयारूवं धम्मियं उवदेसं सम्मं संपड़िवज्जति तमाणाए तहा गच्छति जाव संजमति । "
"तए णं से कत्तिए सेट्ठी णेगमट्ठसहस्सेणं सद्धिं अणगारे जाए इरियासमिए जाव गुत्तबंभचारी ।"
[३-४] तदन्तर कार्तिक श्रेष्ठी ने ( शतक १६ उ ५ सू. १६ में उल्लिखित) गंगदत्त के समान विपुल अनादि आहार तैयार करवाया, यावत् मित्र ज्ञाति यावत् परिवार, ज्येष्ठपुत्र एवं एक हजार आठ व्यापारींगण के साथ उनके आगे-आगे समग्र ऋद्धिसहित यावत् वाद्य-निनाद- पूर्वक हस्तिनापुर नगर के मध्य में से होता हुआ, ( शतक १६ उ. ५ सू. १६ में वर्णित ) गंगदत्त के समान गृहत्याग करके वह भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी के पास पहुँचा यावत् इस प्रकार बोला— भगवन् ! यह लोक चारों ओर से जल रहा है, भन्ते ! यह संसार अतीव प्रज्वलित हो रहा है; (इसमें धर्म ही एकमात्र इहलोक परलोक के लिए हितकर, श्रेयस्कर, मोक्ष ले जाने में समर्थ, एवं ) यावत् परलोक में अनुगामी होगा। अत: मैं (ऐसे प्रज्वलित संसार का त्याग कर) एक हजार आठ वणिकों सहित आप स्वयं के द्वारा प्रव्रजित होना और यावत् आप से धर्म का उपदेश - निर्देश प्राप्त करना चाहता हूँ ।
इस पर श्री मुनिसुव्रत तीर्थंकर ने एक हजार आठ वणिक्- मित्रों सहित कार्तिक श्रेष्ठी को स्वयं प्रव्रज्या प्रदान की और यावत् धर्म का उपदेश-निर्देश किया कि देवानुप्रियो ! अब तुम्हें इस प्रकार चलना चाहिए, इस प्रकार खड़े रहना चाहिए आदि, यावत् इस प्रकार संयम का पालन करना चाहिए ।
एक हजार आठ व्यापारी मित्रों सहित कार्तिक सेठ ने भगवान् मुनिसुव्रत अर्हन्त के इस धार्मिक उपदेश को सम्यक् रूप से स्वीकार किया तथा उन (भगवान्) की आज्ञा के अनुसार सम्यक् रूप से चलने लगा, यावत् संयम का पालन करने लगा ।
इस प्रकार एक हजार आठ वणिकों के साथ वह कार्तिक सेठ अनगार बना, तथा ईर्यासमिति आदि समितियों से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारी बना।
विवेचन — प्रस्तुत परिच्छेद (३-४) में कार्तिक सेठ द्वारा व्यापारीगण सहित अभिनिष्क्रमण, हस्तिनापुर के बाहर जहाँ भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी विराजमान थे, वहाँ पहुँचने और अपनी संसार से विरक्ति के उद्गारपूर्वक भगवान् से दीक्षा तथा मुनिधर्म का निर्देश करने की प्रार्थना, भगवान् द्वारा दिये गए मुनिधर्म में यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने के निर्देश तथा तदनुसार धर्मोपदेश का सम्यक् स्वीकार एवं अनगार धर्म की सम्यक् रूप से साधना क वर्णन है।