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________________ अठारहवाँ शतक : उद्देशक-१ ६७७ समझने चाहिए। सिद्धत्व का कभी अन्त (विनाश) नहीं होता, इसलिए वह अचरम है। आहारक आदि सभी पदों में जीव कदाचित् चरम होता है, और कदाचित् अचरम । जो जीव मोक्ष चला जाता है, वह चरम है, उससे भिन्न आहारकादि अचरम हैं। अनाहारकत्व जीव और सिद्ध दोनों पदों में होता है। भवसिद्धिकादि में चरमाचरमत्व-कथन—'भव्य अवश्यमेव मोक्ष जाता है, यह सिद्धान्तवचन है। मोक्ष प्राप्त होने पर भवसिद्धिक (भव्यत्व) का अन्त हो जाता है। अतः भव्यत्व की अपेक्षा से भवसिद्धिक अचरम है। अभवसिद्धिक का अन्त नहीं होता, क्योंकि वह कभी मोक्ष नहीं जाता, इसलिए अभवसिद्धिक अचरम है। नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक सिद्ध होते हैं, उनमें सिद्धत्व- पर्याय का कभी अन्त नहीं होता, इसलिए अभवसिद्धिकवत् वे अचरम हैं।' सम्यग्दृष्टि आदि में चरमाचरमत्व-कथन—सम्यग्दर्शन जीव और सिद्ध दोनों पदों में होता है। इनमें से जीव अचरम है, क्योंकि वह सम्यग्दर्शन से गिर कर पुनः सम्यग्दर्शन को अवश्य प्राप्त करता है, किन्तु सिद्ध चरम हैं, क्योंकि वे सम्यग्दर्शन से कभी गिरते ही नहीं हैं। · जो सम्यग्दृष्टि नैरयिक आदि, नारकत्वादि के साथ सम्यग्दर्शन को पुनः प्राप्त नहीं करेंगे, वे चरम हैं और उनसे भिन्न अचरम हैं। मिथ्यादृष्टिजीव, आहारक की तरह कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम होते हैं। जो मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादृष्टि का सदा के लिए अन्त करके मोक्ष में चले जाते हैं वे मिथ्यादृष्टित्व की अपेक्षा से चरम हैं और उनसे भिन्न अचरम हैं । मिथ्यादृष्टि नैरयिक आदि जो मिथ्यात्वसहित नैरयिकादिपन पुनः प्राप्त नहीं करेंगे, वे चरम हैं, उनसे भिन्न अचरम हैं । मिश्रदृष्टि की वक्तव्यता में एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये दोनों कभी मिश्रदृष्टि नहीं होते। सिद्धान्तानुसार एकेन्द्रिय कदापि सम्यक्त्वी-यहाँ तक कि सास्वादन सम्यक्त्वी भी नहीं होते। इसलिए सम्यग्दृष्टि की वक्तव्यता में एकेन्द्रिय का कथन नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार जिसमें जो पर्याय सम्भव न हो, उसमें उसका कथन नहीं करना चाहिए। यथा संजीपद में एकेन्द्रिय का और असंज्ञीपद में ज्योतिष्क आदि का कथन करना संगत नहीं है। संज्ञी, असंज्ञी, नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी में चरमाचरमत्व--संज्ञी समुच्चयजीव १६ दण्डकों में, असंज्ञी समच्चयजीव २२ दण्डकों में एक जीव की अपेक्षा कदाचित चरम कदाचित अचरम हैं। बहजीवापेक्षया चरम भी हैं, अचरम भी हैं। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी समुच्चयजीव और सिद्ध एक जीवापेक्षया अथवा बहुजीवापेक्षया अचरम हैं । मनुष्य (केवली की अपेक्षा से) एकवचन-बहुवचन से चरम हैं, अचरम नहीं।। ___ लेश्या की अपेक्षा से चरमाचरमत्व कथन-सलेश्यी समुच्चयजीव २४ दण्डक, कृष्ण-नीलकापोतलेश्यी समुच्चयजीव २२ दण्डक, तेजोलेश्यी समुच्चयजीव १८ दण्डक, पद्मलेश्यी शुक्ललेश्यी समुच्चयजीव ३ दण्डक, एकजीवापेक्षया कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम हैं। बहुजीवापेक्षया चरम भी हैं, अचरम भी हैं। अलेश्यी, समुच्चयजीव और सिद्ध, एकजीवापेक्षया-बहुजीवापेक्षया अचरम हैं, चरम नहीं। अलेश्यी मनुष्य, एकजीव-बहुजीवापेक्षया चरम हैं, अचरम नहीं।
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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