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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ९६. अजोगी जहा नोसण्णी-नोअसण्णी (सु. ८१)। [९६] अयोगी, (सु. ८१ में उल्लिखित) नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी के समान हैं। ९७. सागारोवउत्तो अणागारोवउत्तो य जहा अणाहारओ (सु. ७३-७४)। [९७] साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी (सू. ७३-७४ में उल्लिखित) अनाहारक के समान हैं। ९८. सवेदओ जाव नपुंसगवेदओ जहा आहारओ (सु. ७२ )। [९८] सवेदक, यावत् नपुंसकवेदक (सू. ७२ में उल्लिखित) आहारक के समान हैं। . ९९. अवेदओ जहा अकसायी (सु. ९२)। [९९] अवेदक (सू. ९२ में उल्लिखित) अकषायी के समान हैं। १००. ससरीरी जाव कम्मगसरीरी जहा आहारओ (सु. ७२ ), नवरं जस्स जं अथि।
[१००] सशरीरी यावत् कार्मणशरीरी, (सू. ७२ में उल्लिखित) आहारक के समान हैं । विशेष यह है कि जिसके जो शरीर हो, वह कहना चाहिए।
१०१. असरीरी जहा नोभवसिद्धीय-नोअभवसिद्धीओ (सु. ७८)।
[१०१] अशरीरी के विषय में (सू. ७८ में उल्लिखित) नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक के समान (कहना चाहिए)।
१०२. पंचहिं पज्जत्तीहिं पंचहिं अपज्जत्तीहिं जहा आहारओ (सु. ७२ )। सव्वत्थ एगत्तपुहत्तेणं दंडगा भाणियव्वा।
[१०२] पांच पर्याप्तियों से पर्याप्तक और पांच अपर्याप्तियों से अपर्याप्तक के विषय में (सू. ७२ में उल्लिखित) आहारक के समान कहना चाहिए।
सर्वत्र (ये पूर्वोक्त चौदह ही) दण्डक, एकवचन और बहुवचन से कहने चाहिए।
विवेचन—चरम-अचरम के चौदह द्वार----पूर्वोक्त १४ द्वारों के माध्यम से, उस-उस भाव की अपेक्षा से, एकवचन और बहुवचन से, चरमत्व-अचरमत्व का प्रतिपादन किया गया है।
चरम-अचरम का पारिभाषिक अर्थ-जिसका कभी अन्त होता है, वह 'चरम' कहलाता है, और जिसका कभी अन्त नहीं होता, वह 'अचरम' कहलाता है। जैसे—जीवत्वपर्याय की अपेक्षा से जीव का कभी अन्त नहीं होता, इसलिए वह चरम नहीं, अचरम है।।
नैरयिकादि उस-उस भाव की अपेक्षा चरम-अचरम दोनों-जो नैरयिक, नरकगति से निकलकर फिर नैरयिकभाव से नरक में न जाए और मोक्ष चला जाए, वह नैरयिक भाव का सदा के लिए अन्त कर देता है, वह 'चरम' कहलाता है, इससे विपरीत अचरम। इसी प्रकार वैमानिक तक २४ दण्डकों में चरम-अचरम दोनों