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अठारहवाँ शतक : उद्देशक - १
८७. संजओ जीवो मणुस्सो य जहा आहारओ (सु. ७२ ) ।
[८७] संयत जीव और मनुष्य, (सू. ७२ में उल्लिखित) आहारक के समान हैं।
८८. असंजतो वि तहेव ।
[८८] असंयत भी उसी प्रकार है ।
८९. संजयासंजतो वि तहेव; नवरं जस्स जं अस्थि ।
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[८९] संयतासंयत भी उसी प्रकार है। विशेष यह है कि जिसको जो भाव हो, वह कहना चाहिए । ९०. नोसंजय-नोअसंजय नोसंजयासंजओ जहा नोभवसिद्धीय-नोअभवसिद्धीयो (सू. ७८ ) । [९०] नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक के समान (सू. ७८ के अनुसार ) जानना चाहिए ।
९१. सकसायी जाव लोभकसायी सव्वद्वाणेसु जहा आहारओ (सु. ७२ ) ।
[९१] सकषायी यावत् लोभकषायी, इन सभी स्थानों में, आहारक के समान (सू. ७२ के अनुसार) हैं। ९२. अकसायी जीवपए सिद्धे य नो चरिमो, अचरिमो । मणुस्सपदे सिय चरिमो, सिय अचरिमो । [९२] अकषायी, जीवपद और सिद्धपद में, चरम नहीं, अचरम हैं। मनुष्यपद में कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम होता है ।
९३. [ १ ] णाणी जहा सम्मद्दिट्ठी (सु. ८४ ) सव्वत्थ ।
[९३-१] ज्ञानी सर्वत्र (सू. ८४ में उल्लिखित) सम्यग्दृष्टि के समान है ।
[ २ ] आभिणिबोहियनाणी जाव मणपज्जवनाणी जहा आहारओ (सू. ७२), जस्स जं अस्थि । [९३-२] आभिनिबोधिक ज्ञानी यावत् मनः पर्यवज्ञानी ( सू. ७२ में उल्लिखित) आहारक के समान हैं। विशेष यह है कि जिसके जो ज्ञान हो, वह कहना चाहिए ।
[ ३ ] केवलनाणी जहा नोसण्णी - नोअसण्णी (सु. ८१ ) ।
[९३-३] केवलज्ञानी (सू. ८१ के अनुसार) नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी के समान है। ९४. अण्णाणी जाव विभंगनाणी जहा आहारओ (सु. ७२ ) ।
[९४] अज्ञानी, यावत् विभंगज्ञानी ( सू. ७२ में उल्लिखित) आहारक के समान हैं।
९५. सजोगी जाव कायजोगी जहा आहारओ (सु. ७२), जस्स जो जोगो अत्थि ।
[९५] सयोगी, यावत् काययोगी, (सू. ७२ के अनुसार) आहारक के समान हैं। विशेष— जिसके जो योग हो, वह कहना चाहिए।