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________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र संयतादि में चरमाचरमत्वकथन—संयत समुच्चयजीव और मनुष्य ये दोनों चरम और अचरम दोनों होते हैं । जिसको पुन: संयम (संयतत्व) प्राप्त नहीं होता, वह चरम है, उससे भिन्न अचरम है। समुच्चयजीवों में भी मनुष्य को संयम प्राप्त होता है, अन्य किसी जीव को नहीं। असंयती समुच्चयजीव (२४ दण्डकों में ) संयतत्व की अपेक्षा से एक जीव की दृष्टि से कदाचित् चरम, कदाचित् अचरम होता है। बहुजीवों की दृष्टि से चरम भी हैं, अचरम भी । संयतासंयतत्व (देशविरतिपन), जीव, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य, इन तीनों में ही होता है । इसलिए संयतासंयत का कथन भी इसी प्रकार है। नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत (सिद्ध) अचरम होते हैं, क्योंकि सिद्धत्व नित्य होता है, इसलिए वह चरम नहीं होता । ६७८ कषाय की अपेक्षा से चरमाचरमत्व-सकषायी भेदसहित जीवादि स्थानों में कदाचित् चरम होते हैं, कदाचित् अचरम | जो जीव मोक्ष प्राप्त करेंगे, वे चरम हैं शेष अचरम हैं। नैरयिकादि जो नारकादियुक्त सकषायित्व को पुनः प्राप्त नहीं करेंगे, वे चरम हैं, शेष अचरम हैं। अकषायी (उपशान्तमोहादि ) तीन होते हैं समुच्चयजीव, मनुष्य और सिद्ध । अकषायी जीव और सिद्ध, एकजीव - बहुजीवापेक्षया अचरम हैं, चरम नहीं, क्योंकि जीव का अकषायित्व से प्रतिपतित होने पर भी मोक्ष अवश्यम्भावी है, सिद्ध कभी प्रतिपतित नहीं होता । अकषायिभाव से युक्त मनुष्यत्व को जो मनुष्य पुनः प्राप्त नहीं करेगा, वह चरम है, जो प्राप्त करेगा, वह अचरम है। ज्ञानद्वार में चरमाचरमत्व कथन – ज्ञानी, जीव और सिद्ध सम्यग्दृष्टि के समान अचरम हैं, क्योंकि जीव ज्ञानावस्था से गिर भी जाए तो वह उसे पुनः अवश्य प्राप्त कर लेता है, अतः अचरम है। सिद्ध सदा ज्ञानावस्था में ही रहते हैं, इसलिए अचरम हैं। शेष जिन जीवों को ज्ञानयुक्त नारकत्वादि की पुन: प्राप्ति नहीं होगी वे चरम हैं, शेष अचरम हैं । सर्वत्र से यहाँ तात्पर्य है, जिन जीवों में 'सम्यग्ज्ञान' सम्भव है, उन सब में अर्थात्एकेन्द्रिय को छोड़कर शेष जीवादि पदों में। जो जीव आभिनिबोधिक आदि ज्ञान को केवलज्ञान हो जाने के कारण पुनः प्राप्त नहीं करेंगे, वे चरम हैं, शेष अचरम हैं । केवलज्ञानी अचरम होते हैं। अज्ञानी, मतिअज्ञानी आदि कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम हैं, क्योंकि जो जीव पुनः अज्ञान को प्राप्त नहीं करेगा, वह चरम है, जो अभव्यजीव ज्ञान प्राप्त नहीं करेगा, वह अचरम है । आहारक का अतिदेश जहाँ-जहाँ आहारक का अतिदेश किया गया है, वहाँ वहाँ कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम हैं, यों कहना चाहिए।' चरम - अचरम-लक्षण-निरूपण १०३. इमा लक्खणगाहा— जो पाविहिति पुणो भावं सो तेण अचरिमो होइ । अच्चतवियोगो जस्स जेण भावेण सो चरिमो ॥ १ ॥ १. भगवतीसूत्र. अ. वृत्ति, पत्र ७३६ - ७३७
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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