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________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सयोगी प्रथम और अयोगी प्रथम क्यों ? — योग सभी संसारी जीवों के होता ही है, फिर तीनों में से चाहे एक हो, दो हों तीनों हों, अतः अप्रथम होते हैं, क्योंकि ये अनादि काल में, अनन्त बार प्राप्त हुए हैं, होंगे और हैं। किन्तु अयोगी केवली जीव मनुष्य या सिद्ध की अयोगावस्था प्रथम बार ही प्राप्त होती है, अतएव उसे प्रथम कहा गया パ ६७० जीव, चौवीस दण्डक एवं सिद्धों में एकवचन और बहुवचन से साकारोपयोगअनाकारोपयोग भाव की अपेक्षा प्रथमत्व - अप्रथमत्व कथन ५७. सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता एगत्त-पुहत्तेणं जहा अणाहारए (सु. १२-१७)। [५७] साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त जीव, एकवचन और बहुवचन से (सू. १२-१७ में उल्लिखित ) अनाहारक जीवों के समान हैं। विवेचन - ( ११ ) उपयोगद्वार - प्रस्तुत द्वार (सू. १७) में बताया गया है कि साकारोपयोग (ज्ञानोपयोग) तथा अनाकारोपयोग (दर्शनोपयोग) वाले जीव, अनाहारक समान, कथंचित् प्रथम और कथंचित् अप्रथम जानना चाहिए । प्रथम और अप्रथम किस अपेक्षा से ? – यह जीवपद में सिद्ध जीव की अपेक्षा प्रथम और संसारी जीव की अपेक्षा अप्रथम हैं । अर्थात् — नैरयिक से लेकर वैमानिक दण्डक तक चौवीस दण्डकवर्ती संसारी जीवों में संसारीजीवत्व की अपेक्षा से दोनों उपयोग प्रथम नहीं, अप्रथम हैं। सिद्धपद में सिद्धत्व की अपेक्षा से सिद्धजीवों में ये दोनों उपयोग प्रथम हैं, अप्रथम नहीं। क्योंकि साकारोपयोग- अनाकारोपयोग-विशिष्ट सिद्धत्व की प्राप्ति प्रथम ही होती है। जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकवचन और बहुवचन से सवेद - अवेद भाव की अपेक्षा से यथायोग्य प्रथमत्व - अप्रथमत्व निरूपण ५८. सवेदगो जाव नपुंसगवेदगो एगत्त-पुहत्तेणं जहा आहारए (सु. ९-११), नवरं जस्स जो वेदो अथ । [५८] सवेदक यावत् नपुंसकवेदक जीव, एकवचन और बहुवचन से, (सू. ९ - ११ में उल्लिखित ) आहारक जीव के समान हैं। विशेष यह है कि, जिस जीव के जो वेद हो, ( वह कहना चाहिए) । ५९. अवेदओ एगत्त-पुहत्तेणं तिसु वि पएसु जहा अकसायी (सु. ४६-५० ) । [५९] एकवचन और बहुवचन से, अवेदक जीव, तीनों पदों अर्थात् जीव, मनुष्य और सिद्ध में (सू. ४६५० में उल्लिखित) अकषायी जीव के समान हैं। १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७३५ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७३५
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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