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अठारहवाँ शतक : उद्देशक-१
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यह है जिस के जो ज्ञान हो, वह कहना चाहिए।
५३. केवलनाणी जीवे मणुस्से सिद्धे य एगत्त-पुहत्तेणं पढमा, नो अपढमा।
[५३] केवलज्ञानी जीव, मनुष्य और सिद्ध, एकवचन और बहुवचन से, प्रथम हैं, अप्रथम नहीं हैं। . __५४. अन्नाणी, मतिअन्नाणी सुयअन्नाणी विभंगनाणी य एगत्त-पुहत्तेणं जहा आहारए (सु. ९११)।
[५४] अज्ञानी जीव, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी; ये सब, एकवचन और बहुवचन से (सू. ९-११ में उल्लिखित) आहारक जीव के समान (जानने चाहिए)।
विवेचन (९) ज्ञानद्वार—प्रस्तुत द्वार में (सू. ५१ से ५४ तक में) ज्ञानी, मतिज्ञानी आदि, तथा केवलज्ञानी जीव, मनुष्य और सिद्धों में एकवचन और बहुवचन से, यथायोग्य प्रथमत्व-अप्रथमत्व का निरूपण किया गया है।
ज्ञानी आदि प्रथम-अप्रथम दोनों क्यों?—ज्ञानद्वार में समुच्चयज्ञानी या चार ज्ञान तक पृथक्-पृथक् या सम्मिलित ज्ञानधारक अकेवली प्रथमज्ञानप्राप्ति में प्रथम होते हैं, अन्यथा, पुनः प्राप्ति में अप्रथम किन्तु केवली केवलज्ञान की अपेक्षा प्रथम हैं। ___अज्ञानी प्रथम क्यों?—अज्ञानी अथवा मति-श्रुत-विभंगरूप-अज्ञानी आहारकजीव की तरह अप्रथम है, क्योंकि अज्ञान अनादि रूप से और अनन्त बार प्राप्त होते रहते हैं। जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकत्व-बहुत्व को लेकर यथायोग्य सयोगी-अयोगिभाव की अपेक्षा प्रथमत्व-अप्रथमत्व कथन
५५. सयोगी, मणयोगी वइजोगी कायजोगी एगत्त-पुहत्तेणं जहा आहारए (सु. ९-११), नवरं जस्स जो जोगो अत्थि।
[५५] सयोगी, मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीव, एकवचन और बहुवचन से (सू. ९-११ में प्रतिपादित) आहारक जीवों के समान अप्रथम होते हैं। विशेष यह है कि जिस जीव के जो योग हो, वह कहना चाहिए।
५६. अजोगी जीव-मणुस्स-सिद्धा एगत्त-पुहत्तेणं पढमा, नो अपढमा। [५६] अयोगी जीव, मनुष्य और सिद्ध, एकवचन और बहुवचन से प्रथम होते हैं, अप्रथम नहीं होते हैं।
विवेचन (१०) योगद्वार : प्रस्तुत द्वार में (सू.५५-५६ में) सभी सयोगी और सभी अयोगी जीवों के सयोगित्व-अयोगित्व की अपेक्षा से अप्रथमत्व एवं प्रथमत्व का प्ररूपण किया गया है।
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७३५