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________________ व्याख्या प्रज्ञप्तिसूत्र [४५] सकषायी, क्रोधकषायी यावत् लोभकषायी, ये सब एकवचन और बहुवचन से (सू. ९-११ में उल्लिखित) आहारक के समान जानना चाहिए । ४६. अकसायी जीवे सिय पढमे, सिय अपढमे । [४६] (एक) अकषायी जीव कदाचित् प्रथम और कदाचित् अप्रथम होता है । ४७. एवं मणुस्से वि । [ ४७ ] इसी प्रकार (एक अकषायी) मनुष्य भी ( समझना चाहिए)। ४८. सिद्धे पढमे, नो अपढमे । ६६८ [४८] (अकषायी एक) सिद्ध प्रथम है, अप्रथम नहीं । ४९. पुहत्तेणं जीवा मणुस्सा वि पढमा वि, अपढमा वि । [४९] बहुवचन से अकषायी जीव प्रथम भी हैं, अप्रथम भी हैं। ५०. सिद्धा पढमा, नो अपढमा । [५० ] बहुवचन से अकषायी सिद्धजीव प्रथम हैं, अप्रथम नहीं हैं। विवेचन (८) कषायद्वार प्रस्तुत द्वार में (सू. ४५ ५० तक में) एक अनेक सकषायी और अकषायी जीव, मनुष्य एवं सिद्धों में सकषायादि भाव की अपेक्षा से प्रथमत्व अप्रथमत्व का निरूपण किया गया है। सकषायी अप्रथम क्यों ? – क्योंकि सकषायित्व अनादि है, इसलिए यह आहारकवत् अप्रथम है । अकषायी जीव, मनुष्य और सिद्ध — एक हो या अनेक, यदि यथाख्यात चारित्री हैं, तो वे प्रथम हैं, क्योंकि यह इन्हें पहली बार ही प्राप्त होता है, बार-बार नहीं। किन्तु अकषायी सिद्ध, एक या अनेक, वे प्रथम हैं, क्योंकि सिद्धत्वानुगत अकषाय भाव प्रथम बार ही प्राप्त होता है । ' जीव चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकवचन बहुवचन से यथायोग्य ज्ञानी - अज्ञानीभाव की अपेक्षा प्रथमत्व - अप्रथमत्व निरूपण ५१. णाणी एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्मद्दिट्ठी (सु. ३३-३७ ) । [५१] ज्ञानी जीव, एकवचन और बहुवचन से, (सू. ३३-३७ में उल्लिखित) सम्यग्दृष्टि के समान कदाचित् प्रथम और कदाचित् अप्रथम होते हैं । ५२. आभिणिबोहियनाणी जाव मणपज्जवनाणी एगत्त-पुहत्तेणं एवं चेव, नवरं जस्स जं अत्थि । [५२] आभिनिबोधिकज्ञानी यावत् मन पर्यायज्ञानी, एकवचन और बहुवचन से, इसी प्रकार हैं। विशेष १. भगवतीसूत्र. अ. वृत्ति, पत्र ७३५
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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