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________________ अठारहवां शतक : उद्देशक-१ ६६७ वक्तव्यता सू. ३३-३७ में उल्लिखित) के समान (जानना चाहिए)। ४२. अस्संजए जहा आहारए (सु. ९-११)। ___[४२] असंयतजीव के विषय में (सू. ९-११ में उल्लिखित) आहारक जीव के समान (समझना चाहिए)। ४३. संजयासंजये जीवे पंचिंदियतिरिक्खजोणिय-मणुस्सा एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्मद्दिट्ठी (सु. ३३-३७)। _[४३] संयतासंयत जीव, पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक और मनुष्य, (इन तीन पदों) में एकवचन और बहुवचन में (सू. ३३-३७ में उल्लिखित) सम्यग्दृष्टि के समान (कदाचित् प्रथम और कदाचित् अप्रथम) समझना चाहिए। ४४. नोसंजए नोअसंजए नोसंजयासंजये जीवे सिद्धे य एगत्त-पुहत्तेणं पढमे, नो अपढमे। [४४] नोसंयत-नोअसंयत और नोसंयतासंयत जीव, तथा सिद्ध, एकवचन और बहुवचन से प्रथम हैं, अप्रथम नहीं हैं। . विवेचन (७) संयतद्वार—प्रस्तुत द्वार में (सू. ४१ से ४४ तक में) एक और अनेक संयत, असंयत, नोसंयत-नोअसंयत, नोसंयतासंयत जीव, मनुष्य और सिद्ध के विषय में अतिदेशपूर्वक प्रथमत्व-अप्रथमत्व का निरूपण किया गया है। संयतपद—जीवपद और मनुष्यपद दो ही पद आते हैं। सम्यग्दृष्टित्व की तरह संयत्व भी प्रथम और अप्रथम दोनों हैं । प्रथम संयमप्राप्ति की अपेक्षा से प्रथम है और संयम से गिरकर अथवा अनेक बार मनुष्यजन्म में पुन: पुन: प्राप्त होने की अपेक्षा से अप्रथम है। असंयत—एक जीव या बहुजीवों की अपेक्षा से अनादि होने के कारण आहारकवत् अप्रथम हैं। संयतासंयत—जीवपद, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपद और मनुष्यपद में ही होता है, अत: एक जीव या बहुजीवों की अपेक्षा से यह भी सम्यग्दृष्टिवत् देशविरति की प्राप्ति की दृष्टि से प्रथम भी है, अप्रथम भी है। नोसंयत-नोअसंयत—जीव और सिद्ध होता है, यह भाव एक ही बार आता है, इसलिए प्रथम ही होता जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकत्व-बहुत्व की दृष्टि से यथायोग्य सकषायादि भाव की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व निरूपण __४५. सकसायी कोहकसायी जाव लोभकसायी, एए एगत्त-पुहत्तेणं जहा—आहारए (सू. ९११)। १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्र ७३४-७३५
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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