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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[३८] बहुवचन से (सभी) सिद्ध प्रथम हैं, अप्रथम नहीं हैं।
३९. मिच्छादिट्ठिए एकत्त-पुहत्तेणं जहा आहारगा (सु. ९-११ ) ।
[३९] मिथ्यादृष्टिजीव एकवचन और बहुवचन से, मिथ्यादृष्टिभाव की अपेक्षा से (सू. ९-११ में उल्लिखित) आहारक जीवों के समान (अप्रथम कहना चाहिए)।
४०. सम्मामिच्छद्दिट्ठीए एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्मद्दिट्ठी (सु. ३३-३७), नवरं जस्स अत्थि सम्मामिच्छत्तं ।
[४०] सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव के विषय में एकवचन और बहुवचन से सम्यग्मिथ्यादृष्टिभाव की अपेक्षा से (सू. ३३-३७ में उल्लिखित) सम्यग्दृष्टि के समान ( कहना चाहिए ) । विशेष यह है कि जिस जीव के सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो, ( उसी के विषय में यह आलापक कहना चाहिए) ।
विवेचन – (६) दृष्टिद्वार — प्रस्तुत द्वार में (सू. ३३ से ४० तक) एक या अनेक सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि के विषय में सम्यग्दृष्टि भावादि की अपेक्षा से अतिदेश पूर्वक प्रथमत्व - अप्रथमत्व की प्ररूपणा की गई है।
सभी सम्यग्दृष्टि जीव प्रथम अप्रथम किस अपेक्षा से ? – कोई सम्यग्दृष्टि जीव, जब पहली बार सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है तब वह प्रथम है, और कोई सम्यग्दर्शन से गिर कर दूसरी-तीसरी बार पुनः सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है, तब वह अप्रथम है। एकेन्द्रिय जीवों को सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता, इसलिए एकेन्द्रियों के पांच दण्डक छोड़कर शेष १६ दण्डकों के विषय में यहाँ कहा गया है।
सिद्धजीव, सम्यग्दृष्टिभाव की अपेक्षा से प्रथम हैं, क्योंकि सिद्धत्वानुगत सम्यक्त्व उन्हें मोक्षगमन के समय ही प्राप्त होता ।
मिध्यादृष्टि जीव अप्रथम क्यों ? – मिथ्यादर्शन अनादि है, इसलिए सभी मिथ्यादृष्टिजीव मिथ्यादृष्टिभाव की अपेक्षा से अप्रथम हैं ।
सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्दृष्टिवत् क्यों ? – जो जीव पहली बार मिश्रदृष्टि प्राप्त करता है, उस अपेक्षा से वह प्रथम है और मिश्रदृष्टि से गिरकर दूसरी तीसरी बार पुन: मिश्रदृष्टि प्राप्त करता है, उस अपेक्षा से वह अप्रथम है। मिश्र दर्शन नारक आदि के होता है, इसलिए मिश्रदृष्टिवाले दण्डकों के विषय में ही यहाँ प्रथमत्व - अप्रथमत्व का विचार किया गया है।
जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकत्व - बहुत्व से संयतभाव की अपेक्षा प्रथमत्वअप्रथमत्व निरूपण
४१. संजए जीवे मणुस्से य एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्मद्दिट्ठी (सु. ३३-३७)।
[४१] संयत जीव और मनुष्य के विषय में, एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा, सम्यग्दृष्टि जीव (की १. भगवतीसूत्र. अ. वृत्ति, पत्र ७३४