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अठारहवाँ शतक : उद्देशक-१
६७१ विवेचन (१२) वेद-द्वार—प्रस्तुत द्वार (सू, ५८-५९) में सवेदक एवं अवेदक जीवों के वेदभावअवेदभाव की अपेक्षा से यथायोग्य प्रथमत्व-अप्रथमत्व की चर्चा की गई है।
सवेदी अप्रथम और अवेदी प्रथम क्यों ?—संसारी जीवों के वेद अनादि होने से वे आहारक जीव के समान अप्रथम हैं, किन्तु विशेष यही है कि नारक आदि जिस जीव का नपुंसक आदि वेद हैं, वह कहना चाहिए। अवेदक जीव, जीवपद और मनुष्यपद में, अकषायी की तरह, कदाचित् प्रथम है और कदाचित् अप्रथम है। सिद्धपद में सिद्धत्व की अपेक्षा प्रथम ही है, अप्रथम नहीं है। जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकवचन-बहुवचन से यथायोग्य सशरीर-अशरीर भाव की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व निरूपण
६०. ससरीरी जहा आहारए (सु. ९-११)। एवं जाव कम्मगसरीरी, जस्स जं अत्थि सरीरं, नवरं आहारगसरीरी एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्मद्दिट्ठी (सू. ३३-३७)।
[६०] सशरीरी जीव, (सू ९-११ में उल्लिखित) आहारक जीव के समान है। इसी प्रकार यावत् कार्मणशरीरी जीव के विषय में भी जान लेना चाहिए। किन्तु आहारक-शरीरी के विषय में एकवचन और बहुवचन से, (सू. ३३-३७ में उल्लिखित) सम्यग्दृष्टि जीव के समान कहना चाहिए।
६१. असरीरी जीवे सिद्धे एगत्त-पुहत्तेणं पढमा, नो अपढमा। [६१] अशरीरी जीव और सिद्ध, एकवचन और बहुवचन से प्रथम हैं, अप्रथम नहीं।
विवेचन (१३) शरीरद्वार—प्रस्तुत द्वार (सू. ६०-६१) में समस्त सशरीरी और अशरीरी जीवों के सशरीरत्व-अशरीरत्व की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व का निरूपण किया गया है।
. सशरीरी जीव-आहारकशरीरी को छोड़कर औदारिकादि शरीरधारी जीव को आहारक जीववत् अप्रथम समझना चाहिए। आहारक शरीरी एक या अनेक जीव, सम्यग्दृष्टि के समान कदाचित् प्रथम और कदाचित् अप्रथम हैं।
अशरीरी जीव-जीव और सिद्ध एकवचन से हो या बहुवचन से, प्रथम हैं, अप्रथम नहीं हैं। जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकवचन और बहुवचन से, यथायोग्य पर्याप्त भाव की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व निरूपण
६२. पंचहिं पज्जत्तीहिं, पंचहिं अपज्जत्तीहिं, एगत्त-पुहत्तेणं जहा आहारए (सू. ९-११)। नवरं जस्स जा अत्थि, जाव वेमाणिया, नो पढमा, अपढमा।
[६२] पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त और पांच अपर्याप्तियों से अपर्याप्त जीव, एकवचन और बहुवचन से, १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७३५ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७३५