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________________ ६३९ सत्तरहवां शतक : उद्देशक-४ [१८] इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिए। १९. जीवा णं भंते! किं अत्तकडं वेदणं वेदेति, परकडं वेदणं वेदेति, तदुभयकडं वेदणं वेदेति ? गोयमा ! जीवा अत्तकडं वेदणं वेदेति, नो परकडं वेदणं वेदेति, नो तदुभयकडं वेदणं वेदेति। [१९ प्र.] भगवन् ! जीव क्या आत्मकृत वेदना वेदते हैं, परकृत वेदना वेदते हैं, अथवा उभयकृत वेदना वेदते हैं? [१९ उ.] गौतम! जीव आत्मकृत वेदना वेदते हैं, परकृत वेदना नहीं वेदते और न उभयकृत वेदना वेदते २०. एवं जाव वेमाणिया। सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति। ॥सत्तरसमे सए : चउत्थो उद्देसओ समत्तो॥१७-४॥ [२०] इसी प्रकार (नैरयिक से लेकर) वैमानिक तक कहना चाहिए। . हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन्! यह इसी प्रकार है, यों कहकर (गौतमस्वामी) यावत् विचरते हैं। विवेचन-जीवों के दुःख और वेदना से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर—प्रस्तुत में दुःख शब्द से दु:ख का अथवा मुख्यतया दुःख के हेतुभूत कर्मों का ग्रहण होता है। दुःख से सम्बन्धित दोनों प्रश्नों का आशय यह हैदु:ख के कारणभूत कर्म या कर्म का वेदन (फलभोग) स्वयंकृत होता है या परकृत या उभयकृत? जैनसिद्धान्त की दृष्टि से इसका उत्तर है—दुःख (कर्म) आत्मकृत है। इसी प्रकार वेदना शब्द से सुख और दुःख दोनों का या सुख-दुःख दोनों के हेतुभूत कर्मों का ग्रहण होता है। क्योंकि साता-असाता वेदना भी कर्मजन्य होती है। इसलिए वह एवं वेदना का वेदन दोनों ही आत्मकृत होते हैं। इन प्रश्नों से ईश्वर, देवी-देव या किसी परनिमित्त को दुःख देने या एक के बदले दूसरे के द्वारा दुःख भोग लेने अथवा दूसरे द्वारा वेदना देने या वेदना भोग लेने की अन्य धर्मों की भ्रान्त मान्यता का निराकरण भी हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि संसार के समस्त प्राणियों के स्वकर्मजनित दुःख या वेदना है, एवं स्वकृत दुःख आदि का वेदन है। ॥ सत्तरहवाँ शतक : चौथा उद्देशक सम्पूर्ण॥ ००० १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७२८ (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. ५ पृ. २६२९ (ग) स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा॥ -सामायिकपाठ ३०
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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