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पंचमो उद्देसओ : 'ईसाण'
पंचम उद्देशक : ईशानेन्द्र (की सुधर्मासभा) ईशानेन्द्र की सुधर्मासभा का स्थानादि की दृष्टि से निरूपण
१. कहि णं भंते! ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो सभा सुहम्मा पन्नत्ता ?
गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उर्दू चंदिम० जहा ठाणपए जाव माझे ईसाणवडेंसए। से णं ईसाणवडेंसए महाविमाणे अड्डतेरस जोयणसयसहस्साइं एवं जहा दसमसए (स. १० उ.६ सु. १) सक्कविमाणवत्तव्वया, सा इह वि ईसाणस्स निरवसेसा भाणियव्वा जाव आयरक्ख त्ति। ठिती सातिरेगाइं दो सागरोवमाइं। सेसं तं चेव जाव ईसाणे देविंदे देवराया, ईसाणे देविंदे देवराया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति।
॥ सत्तरसमे सए : पंचमो उद्देसओ समत्तो॥१७-५॥ [१ प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान की सुधर्मा सभा कहाँ कही गई है?
[१ उ.] गौतम! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मन्दर पर्वत के उत्तर में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अत्यन्त सम रमणीय भूभाग से ऊपर चन्द्र और सूर्य का अतिक्रमण करके आगे जाने पर इत्यादि वर्णन ...." यावत् प्रज्ञापना सूत्र के 'स्थान' नामक द्वितीय पद में कथित वक्तव्यता के अनुसार, यावत्-मध्य भाग में ईशानावतंसक विमान है। वह ईशानावतंसक महाविमान साढ़े बारह लाख योजन लम्बा और चौड़ा है, इत्यादि यावत् दशवें शतक (के छठे उद्देशक सू.१) में कथित शक्रेन्द्र के विमान की वक्तव्यता के अनुसार ईशानेन्द्र से सम्बन्धित समग्र वक्तव्यता आत्मरक्षक देवों की वक्तव्यता तक कहना चाहिए।
- ईशानेन्द्र की स्थिति दो सागरोपम से कुछ अधिक है। शेष सब वर्णन पूर्ववत् 'यह देवेन्द्र देवराज ईशान है, यह देवेन्द्र देवराज ईशान है' तक जानना चाहिए।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं।
विवेचन—प्रस्तुत में ईशानेन्द्र की सुधर्मा सभा का वर्णन प्रज्ञापना के स्थानपद एवं भगवती के दशवें शतक के छठे उद्देशक सू. १ के अतिदेशपूर्वक किया गया है।
__॥सत्तरहवां शतक : पंचम उद्देशक समाप्त॥ १. (क) पण्णवणासुत्तं भा. १, पद २, सू. १९८ पृ. ७१ ( श्री महावीर जैन विद्यालय) में देखें।
००० (ख) देखें-भगवती सूत्र भा. ४ (हिन्दीविवेचन) शतक १० उ. ६, सू. १