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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन–समय, देश और प्रदेश की अपेक्षा से प्राणातिपातादि क्रिया : व्याख्या—जिस समय से प्राणातिपात से क्रिया (पापकर्म) की जाती है उस समय में, जिस देश अर्थात् क्षेत्रविभाग में प्राणातिपात से क्रिया की जाती है, उस देश में, तथा जिस प्रदेश—अर्थात् लघुतम क्षेत्रविभाग में प्राणातिपात से क्रिया की जाती है, उस प्रदेश में, यह इन तीनों सूत्रों का आशय है। इसी को व्यक्त करने के लिए यहाँ पाठ है—'जं समयं 'जं देसं' 'जं पएसं'। प्राणातिपात से लेकर परिग्रह तक की पांचों क्रियाओं सम्बन्धी प्रत्येक के पांच-पांच दण्डक होते हैं । यो सब मिलाकर ये २० दण्डक होते हैं।' जीव और चौवीस दण्डकों में दुःख, दुःखवेदन, वेदना, वेदनावेदन का आत्मकृतत्वनिरूपण
१३. जीवाणं भंते ! किं अत्तकडे दुक्खे, परकडे दुक्खे, तदुभयकडे दुक्खे ? गोयमा! अत्तकडे दुक्खे, नो परकडे दुक्खे, नो तदुभयकडे दुक्खे। [१३ प्र.] भगवन्! जीवों का दुःख आत्मकृत है, परकृत है, अथवा उभयकृत है ? [१३ उ.] गौतम! (जीवों का) दुःख आत्मकृत है, परकृत नहीं और न उभयकृत है। १४. एवं जाव वेमाणियाणं। [१४] इसी प्रकार (नैरयिकों से लेकर) वैमानिकों तक जानना चाहिए। १५. जीवाणं भंते ! किं अत्तकडं दुक्खं वेदेति, परकडं दुक्खं वेदेति, तदुभयकडं दुक्खं वेदेति ? गोयमा ! अत्तकडं दुक्खं वेदेति, नो परकडं दुक्खं वेदेति, नो तदुभयकडं दुक्खं वेदेति। [१५ प्र.] भगवन् ! जीव क्या आत्मकृत दुःख वेदते हैं, परकृत दुःख वेदते हैं, या उभयकृत दुःख वेदते हैं ? [१५ उ.] गौतम! जीव आत्मकृत दुःख वेदते हैं, परकृत दुःख नहीं वेदते और न उभयकृत दु:ख वेदते हैं। १६. एवं जाव वेमाणिया। [१६] इसी प्रकार (नैरयिक से लेकर) वैमानिक तक समझना चाहिए। १७. जीवाणं भंते! किं अत्तकडा वेयणा, परकडा वेयडा.? पुच्छा। गोयमा ! अत्तकडा वेयणा, णो परकडा वेयणा, णो तदुभयकडा वेदणा। [१७ प्र.] भगवन् ! जीवों को जो वेदना होती है, वह आत्मकृत है, परकृत है अथवा उभयकृत है ? [१७ उ.] गौतम! जीवों की वेदना आत्मकृत है, परकृत नहीं, और न उभयकृत है। १८. एवं जाव वेमाणियाणं।
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७२८