________________
सतरहवां शतक : उद्देशक-३ मणचलणं चलिंसु वा, चलंति वा, चलिस्संति वा, से तेणढेणं जाव मणजोगचलणा, मणजोगचलणा।
[२० प्र.] भगवन् ! मनोयोग-चलना को मनोयोग-चलना क्यों कहा जाता है ?
[२० उ.] गौतम! चूंकि मनोयोग को धारण करते हुए जीवों ने मनोयोग के योग्य द्रव्यों को मनोयोग रूप में परिणमाते हुए मनोयोग की चलना की थी, वर्तमान में मनोयोग-चलना करते हैं और भविष्य में भी चलना करेंगे, इसलिए हे गौतम ! मनोयोग से सम्बन्धित चलना को मनोयोग-चलना कहा जाता है।
२१. एवं वइजोगचलणा वि। एवं कायजोगचलणा वि। [२१] इसी प्रकार वचनयोग-चलना एवं काययोग-चलना के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए।
विवेचन-प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. १५ से २१ तक) में औदारिकादि पांच शरीरचलनाओं, श्रोत्रेन्द्रियादि पांच इन्द्रियचलनाओं एवं मनोयोगादि तीन योगचलनाओं का सहेतुक स्वरूप बताया गया है। संवेग निर्वेदादि उनचास पदों का अन्तिम फल : सिद्धि
२२. अह भंते! संवेगे निव्वेए गुरु-साधम्मियसुस्सूसणया आलोयणया निंदणया गरहणया खमावणया सुयसहायता विओसमणया, भावे अपडिबद्धया विणिवट्टणया विवित्तसयणासणसेवणया सोतिंदियसंवरे जाव फासिंदियसंवरे जोगपच्चक्खाणे सरीरपच्चक्खाणे कसारपच्चक्खाणे संभोगपच्चक्खाणे उवहिपच्चक्खाणे भत्तपच्चक्खाणे खमा विरागया भावसच्चे जोगसच्चे करणसच्चे मणसमन्नाहरणया वइसमन्नाहरणया कायसमनाहरणया कोहविवेगे जाव मिच्छादंसंणसल्लविवेगे, णाणसंपन्नया दंसणसंपन्नया चरित्तसंपन्नया वेदणअहियासणया मारणंतियअहियासणया, एए णं भंते! पदा किंपज्जवसाणफला पन्नत्ता समणाउसो! ? ...
गोयमा ! संवेगे निव्वेए जाव मारणंतियअहियासणया, एए णं सिद्धिपजवसाणफला पन्नता समणाउसो! सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति।
॥सत्तरसमे सए : तइओ उद्देसओ समत्तो॥१७-३॥ _[२२ प्र.] भगवन् ! संवेग, निर्वेद, गुरु-साधर्मिक-शुश्रूषा, आलोचना, निन्दना, गर्हणा, क्षमापना, श्रुतसहायता, व्युपशमना, भाव में अप्रतिबद्धता, विनिवर्त्तना, विविक्त-शयनासन-सेवनता, श्रोत्रेन्द्रिय-संवर यावत् स्पर्शेन्द्रिय-संवर, योग-प्रत्याख्यान, शरीर-प्रत्याख्यान, कषाय-प्रत्याख्यान, सम्भोग-प्रत्याख्यान, उपधि-प्रत्याख्यान, भक्त-प्रत्याख्यान, क्षमा, विरागता. भाव-सत्य, योगसत्य, करणसत्य, मन:समन्वाहरण, वचन-समन्वाहरण, काय-समन्वाहरण, क्रोध-विवेक, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक, ज्ञान-सम्पन्नता, दर्शन-सम्पन्नता, चारित्रसम्पन्नता, वेदना-अध्यासनता और मारणान्तिक-अध्यासनता, इन पदों का अन्तिम फल क्या कहा गया है ?
१. विवाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. २, पृ. ७८२-७८३