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________________ ६३४ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [२२ उ.] हे आयुष्मन् श्रमण गौतम! संवेद, निर्वेद आदि यावत्-मारणान्तिक अध्यासनता, इन सभी पदों का अन्तिम फल सिद्धि (मुक्ति) है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर (गौतमस्वामी), यावत् विचरते हैं। विवेचन-संवेगादि धर्मों का अन्तिम फल प्रस्तुत सूत्र में संवेद आदि ४९ पदों का उल्लेख करके इनके आचरण का अन्तिम फल मोक्ष बताया गया है। कठिन शब्दार्थ-संवेग—मोक्षाभिलाषा, निर्वेद—संसार से विरक्ति, गुरुसाधर्मिक-शुश्रूषादीक्षादि-प्रदाता आचार्य एवं साधर्मिक साधुवर्ग की शुश्रूषा-सेवा। आलोचना—गुरु के समक्ष समस्त दोषों का प्रकाशन करना। निन्दना-अपने द्वारा स्वकीय दोषों के लिए पश्चात्ताप, आत्मनिन्दा। गर्हणा-दूसरे (बड़ों या संघ) के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना। क्षमापना-अपने अपराधों के लिए क्षमा मांगना। अपने प्रति किये गए अपराधों की दूसरों को क्षमा देना। व्युपशमनता–उपशान्तता, दूसरों को क्रोध से निवृत्त करते हुए स्वयं क्रोध का त्याग करना। श्रुतसहायता–शास्त्राध्ययन में सहयोग देना। अथवा जिस साधक के लिए श्रुत ही एकमात्र सहायक हो, उसकी श्रुत-सहायता-भावना। भाव-अप्रतिबद्धता—हास्यादि भावों के प्रति. आसक्ति न रखना। विनिवर्तना-पापों अथवा असंयमस्थानों से विरति। विविक्तशय्यासनसेवनतास्त्री-पशु-पंडक से असंसक्त शयन आसन—अथवा उपाश्रय का सेवन करना। श्रोत्रादि इन्द्रिय-संवरअपने-अपने विषय में जाती हुई इन्द्रियों को रोकना। योग-प्रत्याख्यान-मन-वचन-काया के अशुभ व्यापारों को रोकना। शरीर-प्रत्याख्यान शरीर में आसक्ति का त्याग करना। कषाय-प्रत्याख्यान-क्रोधादि का त्याग। संभोग-प्रत्याख्यान—एक (पंक्ति) मण्डली में बैठकर साधुओं का भोजनादि व्यवहार करना संभोग हैं, जिनकल्पादि साधना या उत्कृष्ट प्रतिमा धारणा करके उक्त सम्भोग को त्याग करना। उपधि-प्रत्याख्यानअधिक उपधि का त्याग करना। भक्त-प्रत्याख्यान-संलेखना-संथारा करना अथवा उपवासादि करना। क्षमा—क्षान्ति । विरागता—वीतरागता, रागद्वेषविरतता। भावसत्य-शुद्ध अन्तरात्मता रूप पारमार्थिक भावों की यथार्थता । योगसत्य-मन-वचन-काया की एकरूपता । करणसत्य-प्रतिलेखनादि क्रियाएँ यथार्थ रूप से करना। मन, वचन काया को वश में रखना, क्रमशः मनःसमन्वाहरण, वचन-समन्वाहरण और काय समन्वाहरण है। क्रोध से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक पापों का त्याग करना क्रोधविवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक है। वेदनाध्यासनता—क्षुधादि वेदना को समभावपूर्वक सहन करना। मारणान्तिकाध्यासनता—मारणान्तिक कष्ट आने पर भी सहनशीलता रखना। ॥ सत्तरहवाँ शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त॥ ००० १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७२७ (ख) विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखिये-उत्तराध्ययनसूत्र अ. २९ तथा उसकी पाई टीका।
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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