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बीओ उद्देसओ : संजय
द्वितीय उद्देशक : संयत संयत आदि जीवों के तथा चौवीस दण्डकों के सयुक्तिक धर्म, अधर्म एवं धर्माधर्म में स्थित होने की चर्चा-विचारणा
१. से नूणं भंते ! संयतविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे धम्मे ठिए ? अस्संजयअविरयअपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे अधम्मे ठिए ? संजयासंजये धम्माधम्मे ठिए ?
हंता, गोयमा ! संजयविरय जाव धम्माधम्मे ठिए।
[१ प्र.] भगवन् ! क्या संयत, प्राणातिपातादि से विरत, जिसने पापकर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान किया है, ऐसा जीव धर्म में स्थित है? तथा असंयत, अविरत और पापकर्म का प्रतिघात एवं प्रत्याख्यान नहीं करने वाला जीव अधर्म में स्थित है एवं संयतासंयत जीव धर्माधर्म में स्थित होता है?
[१ उ.] हाँ, गौतम! संयत-विरत जीव धर्म में स्थित होता है, यावत् संयतासंयत जीव धर्माधर्म में स्थित होता है।
२. एयंसि णं भंते ! धम्मंसि वा अहम्मंसि वा धम्माधम्मंसि वा चक्किया केयि आसइत्तए वा जाव तुयट्टित्तए वा ?
णो इणढे समढे। (२ प्र.) भगवन् ! क्या इस धर्म में, अधर्म में अथवा धर्माधर्म में कोई जीव बैठने या लेटने में समर्थ है ? (२ उ.) गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ३. से केणं खाई अढे णं भंते ! एवं वुच्चइ जाव धम्माधम्मे ठिए ?
गोयमा ! संजतविरत जाव पावकम्मे धम्मे ठिए धम्मं चेव उवसंपजित्ताणं विहरति। अस्संयत जाव पावकम्मे अधम्मे ठिए अधम्मं चेव उवसंपजित्ताणं विहरइ। संजयासंजये धम्माधम्मे ठिए धम्माधम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरति, से तेणढेणं जाव ठिए।
[३ प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि यावत् धर्माधर्म में .... समर्थ नहीं है ?
[३ उ.] गौतम! संयत, विरत और पापकर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान करने वाला जीव धर्म में स्थित होता है और धर्म को ही स्वीकार करके विचरता है। असंयत, यावत् पापकर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान नहीं करने वाला जीव अधर्म में ही स्थित होता है और अधर्म को ही स्वीकार करके विचरता है, किन्तु संयतासंयत जीव, धर्माधर्म में स्थित होता है और धर्माधर्म (देश-विरति) को स्वीकार करके विचरता है। इसलिए हे गौतम!