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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[२९ प्र.] भगवन् ! औदयिक भाव किस प्रकार का कहा गया है ?
[२९ उ.] गौतम ! औदयिक भाव दो प्रकार का कहा गया है। यथा— उदय और उदयनिष्पन्न |
इस प्रकार इस अभिलाप द्वारा अनुयोगद्वार - सूत्रानुसार छह नामों की समग्र वक्तव्यता, यावत् — यह है वह सान्निपातिकभाव (तक) कहनी चाहिए ।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर ( गौतम स्वामी) यावत् विचरते
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विवेचन- - औदयिक आदि छह भाव — भाव छह प्रकार के हैं— औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और सान्निपातिक । इनमें औदयिक का स्वरूप इसके भेदों से स्पष्ट है। वे दो भेद यों हैं— उदय और उदयनिष्पन्न । उदय का अर्थ है— आठ कर्मप्रकृतियों का फलप्रदान करना । उदयनिष्पन्न के दो भेद हैं । यथा— जीवोदयनिष्पन्न, और अजीवोदयनिष्पन्न । कर्म के उदय से जीव में होने वाला नारक, तिर्यंच आदि पर्याय जीवोदयनिष्पन्न कहलाते हैं । कर्म के उदय से अजीव में होने वाले पर्याय अजीवोदयनिष्पन्न कहलाते हैं, जैसे कि औदारिकादि शरीर तथा औदारिकादि शरीर में रहे हुए वर्णादि । ये औदारिकशरीरनामकर्म के उदय से पुद्गलद्रव्यरूप अजीव में निष्पन्न होने से 'अजीवोदयनिष्पन्न' कहलाते हैं। बाकी पांच भावों का स्वरूप अनुयोगद्वारसूत्र में उक्त षट्नाम की वक्तव्यता जान लेना चाहिए।"
॥ सत्तरहवाँ शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त ॥
१. भगवती ( हिन्दी विवेचन) भा. ५, पृ. २६०४
देखें—नंदसुतं अणुओगद्दाराई च (महावीर जैन विद्यालय - प्रकाशित) सू.२२३-५९, पृ. १०८-१६